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________________ १४० अनेकान्त [वर्ष ४ लाभ पहुंचाना, यह सब उसका ध्येय ही नहीं है। उसका अल्पविकसितादि दशात्रोंमें हैं और वे अपनी अात्मनिधिको ध्येय है अापके पुण्य गुणोंका स्मरण-भावपूर्वक अनु- प्रायः भूले हुए हैं । सिद्धात्माश्रोंके विकसित गुणोपरसे वे चिन्तन-,जो हमारे चित्तको-चिद्रप आत्माकोपाप- आत्मगुणोंका परिचय प्राप्त करते हैं और फिर उनमें अनुमलोंसे छुड़ाकर निर्मल एवं पवित्र बनाता है और इस तरह राग बढ़ाकर उन्हीं साधनों द्वारा उनगुणोंकी प्राप्तिका यत्न हम उसके द्वारा अपने अात्माके विकासकी साधना करते हैं। करते हैं जिनके द्वारा उन सिद्धात्माोने किया था। और इसीसे पद्यके उत्तरार्धमें यह भावना अथवा प्रार्थना की गई इस लिये वे सिद्धात्मा वीतरागदेव श्रात्म-विकासके इच्छुक है कि 'श्रापके पुण्य गुणोंका स्मरण हमारे पापमलसे मलिन संसारी आत्माओंके लिये 'श्रादर्शरूप' होते हैं, श्रात्मगुणोके श्रात्माको निर्मल करे-उसके विकासमें सहायक होवे।' परिचयादिमें सहायक होनेसे उनके 'उपकारी' होते हैं और यहाँ वीतराग भगवानके पुण्य गुणोंके स्मरणसे पापमल- उसवक्त तक उनके 'श्राराध्य' रहते है जबतक कि उनके से मलिन अात्माके निर्मल (पवित्र) होनेकी जो बात कही गई आत्मगुण पूर्णरूपसे विकसित न हो जायँ। इसीसे स्वामी है वह बड़ी ही रहस्यपूर्ण है, और उसमें जैनधर्मके श्रात्म- समन्तभद्रने "तत:स्वनिःश्रेयसभावनापरैः बुधप्रवेकैः वाद, कर्मवाद, विकासवाद और उपासनावाद-जैसे सिद्धान्तों जिनशीतलेड्यसे (स्व० ५०)” इस बाक्यके द्वारा उन बुधजनका बहुत कुछ रहस्य सूक्ष्मरूपमें संनिहित है। इस विषयमें श्रेष्ठों तकके लिये वीतरागदेवकी पूजाको अावश्यक बतलाया मैंने कितना ही स्पष्टीकरण अपनी 'उपासनातत्त्व' और है जो अपने निःश्रेयसकी—अात्मविकासकी--भावनामें सदा 'सिद्धिसोपान' जैसी पुस्तकोंमें किया है, और गत किरणमें सावधान रहते हैं। और एक दूसरे पद्य (स्व० ११६) में प्रकाशित 'भक्तियोग-रहस्य' नामके मेरे लेखपरसे भी पाठक वीतरागदेवकी इस पूजा-भक्तिको कुशलपरिणामोंकी हेतु उसे जान सकते हैं। यहाँपर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना चाहता हूँ कि स्वामी समन्तभद्रने वीतरागदेवके जिन पण्य- तक लिखा है। साथ ही, नीचेके एक पद्यमें वे, योगबलसे गुणोंके स्मरणकी बात कही है वे अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, आठों पापमलोंको दूरकरके संसारमें न पाये जाने वाले ऐसे अनंततसुख और अनंतवीर्यादि अात्माके असाधारण गुण परमसौख्यको प्राप्त हुए सिद्धात्माअोंका स्मरण करते हुए हैं, जो द्रव्यदृष्टिसे सब आत्माअोंके समान होनेपर सबकी अपने लिये तद्रप होनेकी स्पष्ट भावना भी करते हैं, जो कि समान सम्पत्ति हैं और सभी भव्यजीव उन्हें प्राप्त कर सकते वीतरागदेवकी पूजा-उपासनाका सच्चा रूप है :हैं । जिन पापमलोंने उन गुणोंको अाच्छादित कर रक्खा दुरितमलकलंकमष्टक निरुपमयोगबलेन निर्दहन् । है वे ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं, योगबलसे जिन महा- अभवदभव-सौख्यवान् भवान्भवतु ममापि भवोपशान्तये ॥ त्माश्रोने उन कर्ममलोंको दग्ध करके श्रात्मगुणोंका पूर्ण . स्वामी समन्तभद्रके इन सब विचारोंपरसे यह भलेप्रकार विकास किया है वे ही पूर्ण विकसित, सिद्धात्मा एवं वीत- स्पष्ट हो जाता है कि वीतरागदेवकी उपार राग कहे जाते हैं-शेष सब संसारी जीव अविकसित अथवा है और उसका करना कितना अधिक आवश्यक है।
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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