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________________ १८० अनेकान्त [वर्ष ४ संभूति०-जो साधु याचनाका पात्र है, उसे वैराग्यसे श्रृंगार, गतिका क्रम एकाएक कभी नहीं उसके खिंचावसे भागते फिरनेकी आवश्यकता है होता । एक स्थितिसे दूसरी स्थितिमें गमन करनेका और इसी कारण तुम्हारे सहयोगी साधुओंको ऐसे नियम क्रमिक (Evolutionary) होता है । एकास्थानमें भेजा है, जहाँ उस प्रकारके खिंचावका लेश- एक और तुरन्त कुछ भी नहीं बनता। यदि बन भी मात्र भी सम्भव न हो। परन्तु जिसे देना ही है और जाय तो वह क्षणिक और अस्थायी होता है । त्याग लेना कुछ भी नहीं है-अपने लिए कुछ भी नहीं किये हुए विषयकी शक्ति अनूकूल नियमके प्रसङ्गपर रखना है-उस तो याचनाके खिंचाव वाले प्रदेशमें, सहस्रगुणे अधिक बलसे सताती है, और अन्तमें विजय प्राप्त करके, जगतपर त्यागका सिक्का जमानेकी आत्माको मूलस्थितिमें घसीट ले जाती है। किसी आवश्यकता है। तात ! तुम सरीखोंके पास तो जो भी विषयके प्रति अनासक्तिका उद्भव उसकी अतिकुछ है, उसे बस्ती में खुले हाथों बाँटते फिरनेकी तृप्तिमेंसे नहीं होता; तृप्तिमात्र तो उस विषयका पोषण ज़रूरत है । संसारको तुम्हारे समान व्यक्तियों से बहुत ही करती है । भद्र ! तू भंगारमें पला हुआ है । एक कुछ सीखना और प्राप्त करना है। जब आत्मा पूर्ण समय तू श्रृंगारका कीड़ा था और एक ही क्षणमें रूपसे भर जाता है, उसे कुछ इच्छा नहीं रहती, तूने श्रृंगारमेंसे वैराग्यमें प्रवेश किया था, यह धक्का तब उसका आत्म-भण्डार अमूल्य रत्नोंसे उछलने प्रकृति कैसे सहन कर सकती है ? पृथ्वीपर तो धीरे लगता है। और इन रत्नोंको संसार खुले हाथों लूटता ही चलनेमें कल्याण है; शीघ्र चलनेसे फिसल पड़ते है-जिसको जितना चाहिए, वह उतना ले-उसके हैं, और छलांग मारनेसे तो पैर ही टूट जाते हैं। लिए उसको जगतके आकर्षणके केन्द्रमें शिखरपर तूने तो पैर ही तोड़-बैठनेके समान साहस किया था, खड़े रहनेकी आवश्यकता है। कुछ आत्माएँ बलिष्ठ परन्तु तेरा पुरुषार्थ तथा पूर्वकर्म अद्वितीय था, इसी होनेपर भी याचना वाले स्थानपर ठहर सकनेके लिए से तू बच गया। तुम्हारे स्थानमें यदि कोई दूसरा नितान्त अनुपयुक्त होती हैं। उन्हींके लिए शास्त्रकारों सामान्य मनुष्य होता तो वह फिरसे पूर्व विषयके ने याचनाके स्थानसे अलग जाकर, गुफाओंमें अमलकी ओर कभीका खिंच जाता। परन्तु तुम कल्याण-साधन करनेकी आवश्यकता बतलाई है। कितने ही पुरुषार्थी और सवीर्य हो तो भी अन्तमें उन विधानोंका निर्माण तुम्हारे सरीखे वीर्यवान् प्रकृति तुमसे छोटेसे छोटा भी बदला लिए बिना न पुरुषोंके लिए नहीं हुआ है। छोड़ेगी। जब तक तुम कोशाका दर्शन न करोगे, स्थूल०--प्रभो ! परन्तु मैं समझता हूं कि मात्र अपने पूर्वके विलास-स्थलकी और दृष्टि न फेरोगे, दृष्टान्त ही खड़ा करनेके लिए साधुओंके आचारकी तब तक तुम्हारे आत्माको शान्ति न मिलेगी; क्योंकि शिष्ट प्रणालीका लोप करना उचित नहीं है। अभी इन संस्कारोंको तुम बिलकुल कुचलकर नहीं संभूति०-- तात ! अपना पूर्वका इतिहास स्मरण आये हो। विगग उत्पन्न होनेके पश्चात्, वहाँ अल्पकरो । प्रकृति किसी भी आकस्मिक झटकेको, सहन काल रहकर-प्रबल निमित्तोंकी कसौटीपर चढ़ ही नहीं कर सकती। शृगारमेंसे वैराग्यमें, तथा कर-और पिछले संकारोंको कुचलकर, यदि तुम
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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