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________________ अनेकान्त [वर्ष ४ बुधवार सूर्योदयकाल बतलाया गया है । और कहा १०-वादिराजसूरिने अपने पार्श्वचरितमें अनेकों गया है कि उनके शिष्य लक्खनन्दि, माधवचन्द्र और पूर्वाचार्योंका स्मरण किया है। पार्श्वचरित शक सं० त्रिभुवनमल्लने गुरुभक्तिसे उनकी निषद्याकी प्रतिष्ठा ९४७ (ई० १०२५)में बनकर समाप्त हुआ था । इन्होंकराई । देवकीर्ति पद्मनन्दिसे पाँच पीढ़ी तथा कुल- ने अकलंकदेवके न्यायविनिश्चय प्रकरणपर न्यायविनिभूषण और प्रभाचन्द्रसे चार पीढ़ी बाद हुए हैं। श्चयविवरण या न्यायविनिश्चयतात्पर्यावद्योतनी व्याअतः इन आचार्योंको देवकीर्तिके समयसे १००-१२५ ख्यानरत्नमाला नामकी विस्तृत टीका लिखी है । इस वर्ष अर्थात् शक ९५० ( ई १०२८ ) के लगभग हुए टीकामें पचासों जैन जैनेतर प्राचार्योंके ग्रंथोंले प्रमाण मानना अनुचित न होगा। उक्त आचार्यों के काल- उद्धत किए गए हैं । संभव है कि वादिराजके निर्णयमें सहायक एक और प्रमाण मिलता है- समयमें प्रभाचन्द्रकी प्रसिद्धि न हो पाई हो, कुलचन्द्र मुनिफे उत्तराधिकारी माघनन्दि कोलापुरीय अन्यथा तर्कशास्त्रके रसिक वादिराज अपने इस कहे गए हैं । उनके गृहस्थ शिष्य निम्बदेव सामन्तका यशस्वी प्रन्थकारका नामोल्लेम्व किए विना न रहते । उल्लेख मिलता है जो शिलाहारनरेश गंडरादित्यदेवके यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाण स्वतन्त्रभावसे किसी एक सामन्त थे। शिलाहार गंडगदित्यदेवके उल्लेख आचार्यके समयकं साधक या बाधक नहीं होते फिर शक सं० १०३० से १०५८ तकके लेखोंमें पाए जाते भी अन्य प्रबल प्रमाणोंके प्रकाश में इन्हें प्रसङ्गसाधनके हैं। इससे भी पर्वोक्त कालनिर्णयकी पुष्टि होती है।" रूपमें तो उपस्थित किया ही जा सकता है। यही यह विवेचन शक सं० १०८५ में लिखे गए अधिक संभव है कि वादिगज और प्रभाचन्द्र ममशिलालेखोंके आधारसे किया गया है। शिलालेखकी कालीन और सम-व्यक्तित्वशाली रहे हैं अतः वादिवस्तुओंका ध्यानसे समीक्षण करनेपर यह प्रश्न होता राजने अन्य आचार्योंके साथ प्रभाचन्द्रका उल्लेख है कि-जिस तरह प्रभाचन्द्रके सधर्मा कुलभूषणकी नहीं किया है। शिष्यपरम्परा दक्षिण प्रान्तमें चली उस तरह प्रभा- अब हम प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधिके नियामक कुछ चन्द्रकी शिष्यपरम्पराका कोई उल्लेख क्यों नहीं प्रमाण उपस्थित करते हैं (१) ईसाकी चौदहवीं शत ब्दीके विद्वान् अभिनमिलता ? मुझे तो इसका यही संभाव्य कारण मालूम वधर्मभूषणने न्यायदीपिका (पृ० १६) में प्रमेयकमल होता है कि पद्मनन्दिके एक शिष्य कुलभूषण तो मार्तण्डका उल्लेख किया है। इन्होंने अपनी न्यायदक्षिणमें ही रहे और दूसरे प्रभाचन्द्र उत्तर प्रांतमें दीपिका वि० सं० १४४२ (ई० १३:५)में बनाई थी। आकर धारा नगरीके आसपास रहे हैं। यही कारण ईसाकी १३ वीं शताब्दीके विद्वान मल्लिषेणने अपनी है कि दक्षिणमें उनकी शिष्य परम्पराका कोई उल्लेख स्याद्वादमञ्जरी ( रचना समय ई० १२६३ ) में न्यायनहीं मिलता। इस शिलालेखीय अंकगणनासे निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि प्रभाचन्द्र भोजदेव और उस कुमुदचन्द्रका उल्लेख किया है। ईसाकी १२ वीं शताजयसिंह दोनोंके समयमें विद्यमान थे। अतः उनकी ब्दीके विद्वान आचार्य मलयगिरिने आवश्यकनिर्यक्तिपूर्वावधि सन् ९९० के आसपास माननेमें काई बाधक टीका (पृ० ३७१ A.) में लघीयस्त्रयकी एक कारिका नहीं है। १ स्वामी समंतभद्र पृ० २२७ ।
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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