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________________ १६० चयके लिये वैसे प्रश्नका किया जाना उचित ही मान लिया जाय तो उसके उत्तर में समन्तभद्र की ओर से उनके पितृकुल और गुरुकुलका परिचय दिये जाने की, अथवा अधिक से अधिक उनकी भस्मकव्याधिको उत्पत्ति और उसकी शांति के लिये उनके उस प्रकार भ्रमणकी कथाको भी बतला देनेकी ज़रूरत थी; परंतु उक्त दोनों पद्यों में यह सब कुछ भी नहीं हैन पितृकुल अथवा गुरुकुलका कोई परिचय है और न भस्मकव्याधिकी उत्पत्ति आदिका ही उसमें कोई खास जिक्र है — दोनोंमें स्पष्टरूपसे वादकी घोषणा है; बल्कि दूसरे पद्य में तो, उन स्थानों का नाम देते हुए जहां पहले वादकी भेरी बजाई थी, अपने इस भ्रमण का उद्देश्य भी 'वाद' ही बतलाला गया है। पाठक सोचें, क्या समंतभद्रकें इस भ्रमणका उद्देश्य ' वाद ' था ? क्या एक प्रतिष्ठित व्यक्तिद्वारा विनीत भावसे परिचयका प्रश्न पूछे जाने पर दूसरे व्यक्तिका उसके उत्तर में लड़ने झगड़ने के लिये तय्यार होना अथवा वादकी घोषणा करना शिष्टता और सभ्यताका व्यवहार कहला सकता है ? और क्या समंतभद्र जैसे महान् पुरुषोंके द्वारा ऐसे उत्तरकी कल्पना की जा सकती है ? कभी नहीं। पहले पद्यके चतुर्थ चरण में यदि वाद की घोषणा न होती तो वह पद्य इस अवसर पर उत्तरका एक अंग बनाया जा सकता था; क्योंकि उसमें अनेक स्थानों पर समंतभद्र के अनेक वेष धारण करनेकी बातका उल्लेख है । परन्तु दूसरा पद्य तो यहाँ पर कोग अप्रासंगिक ही है-वह पद्य तो 'करहाटक ' नगर के राजाकी सभा में कहा हुआ पद्य है उसमें अनेकान्त [ वर्ष ४ अपने पिछले वादस्थानों का परिचय देते हुए, साफ़ लिखा भी है कि मैं अब उस करहाटक ( नगर ) को प्राप्त हुआ हूं जो बहुभटोंसे युक्त हैं, विद्याको उत्कट - स्थान है और जनाकीर्ण है। ऐसी हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि बनारस के राजाके प्रश्नके उत्तर में समंतभद्र से यह कहलाना कि अब मैं इस करहाटक नगर में आया हूं कितनी बे-सिरपैर की बात है, कितनी भारी भूल है और उससे कथामें कितनी कृत्रिमता आ जाती है। जान पड़ता है ब्रह्म ने मदत्त इन दोनों पुरातन पद्योंको किसी तरह कथा में संगृहीत करना चाहते थे और उस संग्रहकी धुन में उ हैं इन पद्योंके अर्थसम्बन्धका कुछ भी खयाल नहीं रहा । यही वजह है कि वे कथामें उनको यथेष्ट स्थान पर देने अथवा उन्हें ठीक तौर पर संकलित करने में कृतकार्य नहीं हो सके । उनका इस प्रसंग पर, 'स्फुटं काव्यद्वयं चेति योगीन्द्रः तमुवाच सः' यह लिखकर उक्त पद्योंका उद्धृत करना कथा के गौरव और उसकी अकृत्रिमताको बहुत कुछ कम कर देता है। इन पद्योंमें वादकी घोषणा होने से ही ऐसा मालूम देता है कि ब्रह्म नेमिदत्तने, राजामें जैन धर्म की श्रद्धा उत्पन्न करानेसे पहले, समंतभद्रका एकान्तवादियोंसे वाद कराया है; अन्यथा इतने बड़े चमत्कार के अवसर पर उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी । कांचीके बाद समंतभद्रका वह भ्रमण भी पहले पद्यको लक्ष्य में रखकर ही कराया गया मालूम * यह बतलाया गया है कि "कांचीमें मैं नाटक ( दिगम्बर साधु ) हुआ, वहाँ मेरा शरीर मलिसे मलिन था; लाम्बुश में पाण्डुपिण्ड रूपका धारक ( भस्म रमाए शैवसाधु ) हुआ; yosis में बौद्ध भिक्षुक हुत्रा; दशपुर नगरमें मृष्टभोंजी परिव्राजक हुआ, और वाराणसीमें शिवसमान उज्ज्वल पाण्डुर अंगका धारी मैं तपस्वी (शैवसाधु) हुना हूँ; राजन् मैं जैन नि थवादी हूँ, जिस किसीकी शक्ति मुझसे वाद करनेकी हो वह सामने ग्राकर बाद करे ।”
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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