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________________ किरण २ ] प्रभाचंद्रका समय लेने के कारण उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचंद्रकृत नहीं प्रशस्तिवाक्य नहीं है, किन्हीं में 'श्री पद्मनन्दि' श्लोक मानना चाहते । मुख्तारमा० ने एक हेतु यह भी दिया नहीं है तथा कुछ प्रतियोमें सभी श्लोक और प्रशस्तिहै। कि-प्रमेयकमलमार्तण्डकी कुछ प्रतियोंमें यह वाक्य हैं। न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमें 'जयसिंह अंतिमवाक्य नहीं पाया जाता । और इसके लिए देवराज्ये' प्रशस्ति वाक्य नहीं है । श्रीमान मुख्तारसा० भाण्डारकर इंस्टीट्यटकी प्राचीन प्रतियोंका हवाला पायः इसीम उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचन्द्रकृत नहीं दिया है। मैंने भी प्रमेयकमलमार्चण्डका पुनः सम्पादन मानते । करते समय जैनसिद्धान्तभवन आगकी प्रतिके पाठा- इसके विषयमं मेरा यह वक्तव्य है कि-लेखक म्तर लिए हैं। इसमें में उक्त 'भोजदेवराज्ये' वाला , वाला प्रमादवश प्रायः मौजूद पाठ तो छोड़ देते हैं पर किसी वाक्य नहीं है। इसी तरह न्यायकुमुदचंद्रके सम्पादन अन्यकी प्रशस्ति अन्यग्रन्थमें लगानेका प्रयत्न कम में जिन श्रा०, ब, श्र० और भां० प्रतियोंका उपयोग करते हैं । लेखक आखिर नकल करने वाले लेखक किया है, उनमें प्रा० और ब० प्रतिमें 'श्री जयसिंह- ही तो हैं, उनमें इतनी बुद्धिमानीकी भी कम संभावना देवराज्य' वाला प्रशस्ति लेख नहीं है । हाँ, भां० और है कि वे 'श्री भोजदेवराज्य' जैसी सुन्दर गद्य पशस्ति श्र० प्रतियाँ, जो ताड़पत्र पर लिखी हैं, उनमें 'श्री को स्वकपोलकल्पित करके उसमें जोड़ दें। जिन जयसिंहदेवराज्ये' वाला प्रशस्तिवाक्य है । इनमें भां० पतियोंमें उक्त प्रशस्ति नहीं है तो समझना चाहिए प्रति शालिवाहनशक १७६४ की लिग्बी हुई है। इस कि लेखकोंके प्रमादसे उनमें यह प्रशस्ति लिखी ही तरह प्रमेयकमलमण्डिकी किन्हीं प्रतियोंमें उक्त ' नहीं गई । जब अन्य अनेक पमाणोंस पभाचन्द्रका १ रत्नकरण्ड प्रस्तावना पृ० ६० । समय करीब करीब भोजदेव और जयसिंहके राज्य २ देखो,इनका परिचय न्यायकु०प्र०भागके संपादकीयमं। काल तक पहुँचता है तब इन प्रशस्तिवाक्योंका टिप्प___पं० नाथूरामजी प्रेमी अपनी नोटबुकके अाधारसे । णकारकृत या किसी पीछे होने वाले व्यक्तिकी करतूत सूचित करते हैं कि- "भाण्डारकर इंस्टीच्य टकी नं०८३६ ( सन् १८७५-७६) की प्रतिमें प्रशस्तिको 'श्री पद्मनंदि' कहकर नहीं टाला जा सकता। मेरा यह विश्वास है वाला श्लोक और 'भोजदेवराज्ये वाक्य नहीं। वहीं की कि 'श्रीभोजदेवराज्य' या 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' नं० ६३८ ( सन् १८७५-७६) वाली प्रतिमें 'श्री पद्मनंदि' पशस्तियां सर्वपथम पमेयकमलमार्तण्ड और न्यायश्लोक हे पर 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं है। पहिली प्रति कमदचंटक रचयिता पभाचंदन ही बनाई है। और संवत् १४८६ तथा दूसरी संवत् १६६५ की लिखी हुई है।" वीरवाणी विलास भवनके अध्यक्ष पं० लोकनाथ पार्श्व- है." सोलापरकी प्रतिमें "श्री भोजदेवराज्य” प्रशस्ति नहीं नाथशास्त्री अपने यहाँ की ताइपत्रकी दो पूर्ण प्रतियोंको है। दिल्लीकी श्राधुनिक प्रतिमें भी उक्त वाक्य नहीं है। देखकर लिखते हैं कि-"प्रतियोंकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुद्रित अनेक प्रतियोमें प्रथम अध्यायके अन्तमें पाए जाने वाले पुस्तकानुसार प्रशस्ति श्लोक पूरे हैं और 'श्री भोजदेवराज्ये "सिद्धं सर्वजनप्रबोध" श्लोककी व्याख्या नहीं है। इंदौरकी श्रीमद्धारानिवासिना' श्रादि वाक्य हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड तुकोगंजवाली प्रतिमें प्रशस्तिवाक्य है और उक्त श्लोककी की प्रतियोंमें बहुत शैथिल्य है, परन्तु करीब ६०० वर्ष व्याख्या भी है । खुरईकी प्रतिमें 'भोजदेवराज्य' प्रशस्ति नहीं पहिले लिखित होगी। उन दोनों प्रतियोमें शकसंवत् नहीं है, पर चारों प्रशस्ति-श्लोक हैं।
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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