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________________ अनेकान्त [वर्ष ४ बिना ज्ञान और चारित्र मिथ्या कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टिके चारित्र है । अर्थात् जो क्रियाएँ श्रात्मस्वरूपकी घातक हैंप्राप्त होते ही उनमें समीचीनता-सत्यता अाजाती है और वे जिनसे आत्मापतनकी ओर ही अग्रसर होता है--उनके दोनों सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके यथार्थ नामोंसे अंकित सर्वथा परित्यागको 'सम्यकचारित्र' कहते हैं। सदृष्टि और हो जाते हैं। अर्थात् श्रात्मासे जब मिथ्यात्वरूप प्रवृत्ति दूर समीचीन ज्ञानके साथ जैसे जैसे आत्मा विकासकी अोर अागे हो जाती है तब आत्मा अपने स्वभावमें स्थिर हो जाता है, बढ़ता है वैसे वैसे ही उसकी प्रात्मपरिणति भी निर्मल होती उस समय उसका ज्ञान और श्राचरण दोनों ही सम्यक् चली जाती है और वह अपनी आत्मविशुद्धिसे कर्मोकी प्रतिभासित होने लगते हैं। सदृष्टिके प्राप्त होते ही उसकी असंख्यात गुणी निर्जरा करता हुआ क्षपक श्रेणीपर श्रारूढ़ विभाव परिणति हट जाती है और वह अपने सच्चिदानन्द- होकर राग-द्वषके अभावरूप परमवीतराग भावको अंगीकार रूप अात्मस्वरूपमें तन्मय हो जाता है, फिर उसका संसारमें करता है । उस समय श्रात्मा स्वरूपाचरणमें अनुरक्त हुश्रा जीवोंसे कोई वैर-विरोध नहीं होता, और न वह बुद्धिपूर्वक ध्यान-ध्याता-ध्येयके विकल्पोंसे रहित अपने चैतन्य चमकिसीको अपना शत्र-मित्र ही मानता है। उसकी दृष्टि विशाल काररूप विज्ञानघन अात्मस्वरूपमें तन्मय हो जाता है और श्रौदार्यादि गुणोंको लिये हुए होती है, हृदय स्वच्छ और रत्नत्रयकी अभेद परिणतिमें मग्न हो जाता है, उसी तथा दयासे श्राद्र हो जाता है, संकीर्णता, कदाग्रह और समय आत्मा शुक्लध्यानरूप अग्निसे चार घातियाकर्मोका भयादि दुर्गुण उससे कोसों दूर भाग जाते हैं और वह समूल नाशकर कैवल्यकी प्राप्ति करता है। पश्चात् योगनिंदक एवं पूजकपर समान भाव धारण करता है। निरोध-द्वारा अवशिष्ट अघाति कर्मोका भी समूल नाशकर - पदार्थके स्वरूपको जैसाका तैसा जानना उसे उसके सिद्ध परमात्मा हो जाता है और सदाके लिये कर्मबंधनसे उसी रूपमें अनुभव करना 'सम्यग्ज्ञान' है। पाफ्की कारण- छूटकर अपने वीतराग स्वरूपमें स्थिर रहता है। भूत सांसारिक क्रियाओंका भले प्रकार त्याग करना सम्यक- वीरसेवामंदिर, सरसावा ता०५-३-१९४१ दुनियाका मेला जी भरकर जीवन-रस ले ले, दो-दिनका दुनियाका मेला ! दूर-दूरके यहां बटोही-आते-जाते नित्य , रजनी होती, चांद चमकता, अरु दिनमें श्रादित्य । अम्बरमें अगणित तारे हैं, भूपर प्राणी ठेलम-ठेला !! सुख-दुखकी दो पगडंडी हैं, पाप-पुण्य दो पैर , चाहे जिधर घूमकर करले पथिक! जगतकी सैर! इधर योगीकी मौन-समाधि, उधर बजाता बीन, सपेला! एक अोर घनघोर घटा है, एक अोर आलोक ; एक अोर मन हर्षित होता, एक मोर हा! शोक !! तीन लोक बहु द्वीप-खण्डके, जीवोंका लगता है मेला ! चाहे जिसे समझले अपना, चाहे जिसको और : - चोर, लुटेरे, हत्यारे हैं, यहां न तेरी खैर ! सावधान हो ! जान बचाकर भाग यहांसे भाग अकेला ! ... सपना समझ इसे रे! यहतो माया मकड़ी-कासा जाला: ऊपरसे सुख-शुभ्र दीखता, पर अंदरसे बिल्कुल काला! इसे परखता वही पारखी, जो सच्चे सत्-गुरुका चेला ! जी भरकर, जीवन-रस ले ले, दो दिनका दुमियाका मेला !! . - पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित'
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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