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________________ १५२ चाला अभी मिल सकता है, कहिए दूँ ?" 'ऐं ! बिल्कुल भर गया ?” 'हो ! कभी का! म्यूथियेटर्सका चित्र-पट है न ? 'क्या, स्टार्ट हो गया ?" 'अभी नहीं होने ही वाला है!' " 'तो'...! लाइए, देखता ही जाऊँ !' - श्रठनी जेब में डालकर एक रुपया और एस दुधी उनकी ओर बढ़ाई ! उन्होंने रुपया तख्ते पर मारा, और बोले'मिहरवान् ! दूसरा दीजिए !' 'क्यों ? क्या खराब है साहब, यह रुपया ?" 'आप बहस क्यों करते हैं, दूसरा दे दीजिए न ?” आखिर रुपया बदलना पड़ा, खराब न होते हुए और तब मैं टिकिट लेकर भीतर जा सका ! --- अनेकान्त भी ! X X X x रातको लौटा तो ग्यारह बज रहे थे ! सिनेमा - गृहसे निकलने वाला जन-समूह समुद्रकी तरह उमड़ रहा था! उसीमें कोई गा रहाथा - 'बाबा, मनकी आँखें खोल !' गाने वाला इस प्रयत्न में था कि अभी देखे हुए खेलमै गाने वाले की तरह गाले ! मगर ? - फिर भी वह गा रहा था। और अपनी समझमें - बड़ा सुन्दर ! मैं भी गुनगुनाने लगा 'बाबा, मनकी आँखें खोल ! 'हँय! यह मनकी शायें क्या होती है-भाई ?-- [ वर्ष ४ सोचने लगा- 'क्या देखा जाता है— उनसे - क्या मन...?” 卐 'पानी'...! पानी....!! आ! पानी !!! हे भगवान् ! मेरी सुधलो...! कोई मुझे''''पा'' ''नी''''!'' मैं किंकर रुक गया ! देखा तो वही परिचित भिखारी यंत्रणाओंसे घिरा हुआ, तड़प रहा है ! मेरे हृदयने एक साथ गाया-'बाबा, मनकी श्राँखें खोल !” मैं ग्लानिको दूर हटाकर, उसके मुँह परसे कपड़ा हटाया। देखा तो चौंककर पीछे हट गया ! मन जाने कैसा होने लगा ! 'ओह ! बेचारा प्यासा ही सो गया, और 'हाय ! सदाके लिये....!'. ओठ खुले हुए थे--हाथ फैले हुए ! शायद मोन भाषा में कह रहा था -- 'एक पैसेके चने खाकर पानी पी लूँगाबाबूजी ! जी मैं श्राया—इसकी खुली हथेलियों में कुछ रख दूं ! पर, हृदयमें आन्दोलन चल रहा था— एक पैसा देकर इसकी जान न बचाई गई अठारह खाने! वहां बाहरे, मनुष्य ! उफ़ !!! रह-रह कर यह लाइन मनके भीतर उतरती चली गई. 'बाबा, मनकी आँखें खोल !' --
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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