Book Title: Anekant 1941 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 62
________________ १८२ अनेकान्त [वर्ष ४ संसारके मुंहसे धर्म तकका नाम निकलना बन्द हो इस बहुमूल्य प्राप्तिसे इस आश्रमके कोशको भर दो । जायगा, उस समय भी तेरे अपवादरूप चरित्रका स्थल-परन्तु प्रभो, यदि मैं पराजित होजाऊँ लोग हर्षसे गायन करेंगे । भद्र ! इससे अधिक प्रकाश तो आप मेरी सहायता करनेको तत्पर रहिए । में मैं तुम्हें नहीं पहुंचा सकता; अधिक प्रकाश तो तुम्हें कोशाह के गृहमें प्राप्त होगा । वहाँसे प्रकाश - संभूति--तात ! मैं सर्वदा ही तुम्हारे साथ हूं। लाकर, गुरुके आश्रमको उज्ज्वल करना। वन और पराजयका भय त्याग दो, भय ही आधी पराजय है। गुफाओं में शैतान पर विजय प्राप्त करनेसे जो फल जहाँ तक याचकता है, वहाँ तक ही भय है । मिलता है, उसकी अपेक्षा शैतानके घरमें जाकर ही स्थूल-तो नाथ ! अब मैं आज्ञा मांगता हूँ उस पर विजय प्राप्त करनेसे अधिक बहुमूल्य सम्पत्ति और एक बार फिर प्रार्थना करता हूँ कि यदि गिरूँ हाथ लगती है। वहाँ शैतान अपने गुप्त भंडार विजेता तो उठानेकी कृपा करेंगे । के समक्ष खोल देता है । उसमेंसे विजेता चाहे जितना * स्वर्गीय श्ची० वाडीलाल मोतीलाल जी शाह द्वारा सम्पादित ले सकता है और संसारको भी दे सकता है। तात! गुजराती "जैन हितेच्छु" से अनुवादित । संयमीका दिन और रात (लेखक-श्री विद्यार्थी') " या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि,सा निशा पश्यतोमुनेः ॥” सब प्राणियोंकी रात है उसमें संयमी शुद्ध चैतम्यस्वरूप तथा शरीरसे बिल्कुल पृथक है, जो शरीरके - मनुष्य जागता है-वह उसका दिन है- संसर्गसे-पुद्गल परमाणुओंके समावेशसे-अपने असली रूपसे और जिसमें प्राणी जागते हैं-जो संसारी हटकर प्रकट होता है। वस्तुत: आत्मामें सदैव । प्राणियोंका दिन है वह उस द्रष्टा मुनि उसके स्वाभाविक गुण-अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त -~~x की रात है-इस वाक्यमें अनेकान्तियों वीर्य श्रादि-विद्यमान रहते हैं, जो कार्मिक वर्गणाअोंके __ को तो कोई आश्चर्यकी बातही नहीं; आच्छादनसे पूर्णरूपमें दृष्टिगोचर नहीं होते । परन्तु वे कभी क्योंकि उनके लिये तो यह केवल दृष्टिकोणका भेद है, जिस आत्मासे पृथक् नहीं होते और न हो ही सकते हैं । जिस से दिनको रात्रि तथा रात्रिको दिन भी समझा जा सकता है। प्रकार सूर्य सदैव तेजोमय है किन्तु जलद-पटल के कारण किन्तु यह वाक्य तो एकान्तवादियोंके एक प्रतिष्ठित एवं विकृत रूपमें दिखाई देता है। जैसे जैसे घनावरण हटता प्रमाणित ग्रन्थका उद्धरण है जिसमें रात्रिका दिवस तथा जाता है वैसे ही वैसे उसकी प्राकृतिक प्रभा भी प्रादुर्भूत दिवसकी रात्रि की गई है । अस्तु, इसका समाधान भी वही होती जाती है, उसी प्रकार जैसे ही जैसे कार्मिक वर्गणाओं है-केवल अपेक्षावाद ! का श्रावरण, जो आत्माको श्राच्छादित किये हुए है, हटता - इसके लिखनेकी आवश्यकता नहीं कि श्रात्मा नितान्त जाता है वैसे ही वैसे अात्मा अपने शुद्ध स्वाभाविक स्वरूप

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