________________
किरण २ ]
मुनिसुव्रतकाव्यके कुछ मनोहर पद्य
१७३
लन करते थे, किंतु दुर्जनोंका निग्रह करनेमें भी तत्पर वर्णन आता है, इसी बातको कवि अपनी कल्पनाके थे। इससे प्रतीत होता है कि जैन नरेशोंकी नीतिमें द्वारा किस तरह सजाता हैदुर्जनों की पूजाका स्थान नहीं है । उन्हें तो दण्डनीय पुष्पाः पतंतो नभसः सुधांशोरेणस्य सिंहध्वनिजातभीतः । बताया है, जिससे इतर प्रजाको कष्ट न होवे- पदप्रहारैः पततामुडूनां शंकां तदा विद्वतो वितेनुः ॥४-३७॥ अथाभवत्तस्य पुरस्य राजा सुमित्र इत्यन्वितनामधेयः।
आकाशसे गिरते हुए पुष्प ऐसी शंका उत्पन्न क्रियार्थयोः क्षेपण-पालनार्थद्वयात् असत्सत् विषयात्सुपूर्वात्॥२.१ करते थे मानो सिंहध्वनिसे भीत होकर भागते हुए चंद्र
भगवान मुनिसुव्रत जब म ता पद्मावतीके गर्भमे मृगके चरणप्रहारसे गिरते हुए नक्षत्रोंकी राशि ही हो। पधारे तबकी शोभाका वर्णन करते हुए कवि भ्रान्तिमान अलंकारके उदाहरणद्वारा जो हास्यलिखते हैं
रसकी सामग्री उपस्थित की गई है, वह काव्य मर्मज्ञों सा गर्भिणी सिंहकिशोरगर्भा गुहेव मेरोरमृतांशुगर्भा। के लिए श्रानंदजनक हैवेलेव सिंधोः स्मृतिरत्नगर्भा रेजे तरां हेमकरंडिकेव ॥४-२॥ मुग्धाप्सराः कापि चकार सर्वानुत्फुल्लवक्त्रान्किल धूपचूर्णम् । _ 'गर्भावस्थापन्न महारानी पद्मावती इस प्रकार रथाप्रवासिन्यरुणे क्षिपंति हसंतिकांगारचयस्य बुध्या ॥५-३१ शोभायमान होती थी जैसे सिंहके बच्चे को धारण करने 'रथाग्रभागमें स्थित अरुण नामक सूर्यसारथि वाली गुहा, चंद्रमाको अपने गर्भ धारण करनेवाली को अंगारका पुंज समझ एक भोली अप्सराने उसपर समुद्रकी वेला अथवा चिंतामणि रत्नको धारण करने धूपका चूर्ण फेंक दिया; इससे सबका चेहरा हंसीसे वाली सुवर्णकी मंजूषा शोभायमान होती है। खिल उठा।' ___ भगवानके जन्मसमय सुगंधित जलवृष्टिसे पृथ्वी ऐसे भ्रमपर किसे हंसी नहीं आएगी, जिसमें की धलि शांत हो गई थी, इस विषय में बड़ी संदर व्यक्तिको अग्नि पिंड समझकर उसपर कोई धूप इस कल्पना की गई है- .
लिए क्षेपण करे कि उसकी समझके अनुसार उससे रजांसि धर्मामृतवर्षणेन जिनांषुवाहः शमयिष्यतीति ।
धूम्रराशि उदित होने लगेगी ? न्यवेदयनम्बुधरा नितांत रजोहरैगंधजलाभिवः ॥४-३०॥ भगवानके जन्माभिषेकके निमित्त जल लानेको
'जिनभगवानरूपी मेघ धर्मामृतकी वर्षा द्वारा देवता लोग क्षीरसागर पहुँचे, उस समयके पापभ वनाओंको शांत करेंगे, इसी बात को सूचित सागरका कितना सुंदर वर्णन किया गया है करने के लिए ही मानो मेघोंने सुगन्धितजलकी वृष्टिसे यह कविजन देखें। यह तो कविसमय-प्रसिद्ध बात है धूलिराशिको शांत कर दिया था। ------
कि देवता समुद्रका मंथन कर लक्ष्मी आदि रत्न - यह स्प्रेक्षा ऐसी सुंदर है कि आगामी यह अक्ष
निकाल कर लेगए थे; उसी कल्पनाको ध्यानमें रखकर स्शः सत्य होती है; अतः कल्पनाका रूप धारण करने
कवि वर्णन करता है
निपीड्य लक्ष्मीमपहृत्य चक्रिरे ठकाः स्वक जीवनमात्रशेषक। वाली यह भविष्यवाणीके रूपमें प्रतीत होती है। अपीदमायांत्यपहमित्यगादपांनिधिर्वेपथुमूर्मिभिर्न तु ॥६-१४॥
भगवोनके जन्मसमय देवोंद्वारा श्रानंदाभि- अरे पहले इन ठग देवताओंने हमें पीडित कर व्यक्तिके रूपमें आकाशसे पुष्पोंकी वृष्टिका ग्रंथोंमें हमसे लक्ष्मी छीन लो और हमारे पास केवल जीवन