Book Title: Anekant 1941 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 58
________________ शैतानकी गुफामें साधु (अनु०-डाक्टर भैयालाल जैन, साहित्यरत्न ) .. [ इस लेखके पात्र स्थूलभद्र पूर्वावस्थामें वेश्या-सेवी थे, पश्चात् एक महान् योगी होगये थे । उत्तरावस्थामें गुरु उन्हें वेश्यागृहमें ही चतुर्मास व्यतीत करनेकी अनुमति देते हैं और उससे अमूल्य तत्वज्ञान ( Philosophy ) प्रगट करते हैं ।] संभूतिविजय-भद्र ! निदान तुमने कौनसे हृदयका खटका, कोई खटका नहीं है, किन्तु वह किसी स्थानमें यह चतुर्मास व्यतीत करना निश्चित किया भव्य जीवके अपूर्व अदृष्ट विशेषके प्रकम्पकी प्रतिहै ? अन्य सब साधुओंमे अपने अपने स्थानका ध्वनि है । तान ! तुम्हें कौनसा खटका है ? निश्चय कर लिया है और वे हमारी सम्मतिकी कसौटी स्थूल-प्रभो ! जितना आप समझते हैं उतना पर चढ़कर सुनिश्चित भी हो चुके हैं। कल प्रातःकाल निःस्वार्थी मैं नहीं हूँ और मुझे जा खटकता है. वह हम सबको यहांसे प्रस्थान करना है। स्वार्थका काँटा ही है। जिस ओर हृदयका खिंचाव स्थूलभद्र-दयासागर ! मैं भी बहुत समयसे इसी होता है क्या वहाँ स्वार्थकी दुर्गन्ध होना सम्भव चिन्तामें हूँ; परन्तु मेरे हृदयका जिस दिशाकी ओर नहीं है ? झुकाव है, वहां निवास करनेमें मुझे एक भारी खटका संभूति०-भद्र ! स्वार्थ तथा पगर्थकी प्राकृत प्रतीत होता है और उस कांटेको हृदयसे निकाल व्याख्यारूपी तुम्हारी प्रात्माकी यह भूमिका अब बाहर करने के प्रयत्नमें मैं सर्वदा निष्फल होता हूं। बदल डालना उचित है। ये पुरानी वस्तुएँ अब फैंक ठक रीतिसे कुछ भी निश्चित नहीं कर सकता। दो । चित्तके जिस अंशमेंसे स्वार्थ उत्पन्न होता है संभूतिः -तात ! तुम अपने विशुद्ध हृदयमें एक उसीमेंसे परार्थ भी होता है। दोनों एक ही घरके भी आत्मप्रतिबन्धक भाव होने की शंका मत करो। मैं निवासी हैं। तुम्हारा आत्मनिदान बहुत सम्हालपूर्वक करता आ - स्थूल०-जो बातें पहिले आपके मुग्वसे कभी रहा हूँ। तुम्हारे हृदयमें कटीले वृक्षोंका उगना बहुत श्रवण नहीं की, वे आज सुनकर जान पड़ता है कि समयसे बन्द हो चुका है। वहाँ अब कल्पवृक्षोंका सर्वदाकी अपेक्षा आज आप कुछ विपरीत ही वह रमणीय उपवन शोभा दे रहा है। तिसपर भी यदि रहे हैं । स्वार्थ तथा परार्थ चित्तकं एक ही भागसे तुम्हारे हृदय को किसी प्रकारकी शंकाका अनुभव हो जन्मते हैं, यह बात तो आज नवीन ही मालूम हुई । रहा हो तो उससे किसी महाभाग्य आत्माके अपूर्व संभूति०-अधिक रके बदलावके कारण, वस्तुकी हितका संकेत ही संभवित होता है। अत्मत्यागी व्याख्यामें भी फेरफार होता जाता है। आत्माके जिस

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