Book Title: Anekant 1941 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 59
________________ किरण २] शैतानकी गुफामें साधु १७६ अधिकारमें स्वार्थ तथा पगर्थको परस्पर में शत्रुके तो अब क्षय हो चुकी है, परन्तु किसी समय जो समान गिनना चाहिए, वह अधिकारतो तुम कभीक मुझे इन्द्रियजन्य आनन्द देती थी तथा विषय सुखकी पार कर चुके हो। अब दोनों ही तुम्हारे लिए अर्थ- परिसीमाका अनुभव कराती थी, उसी अज्ञान बालाहीन हैं। वे अब तुम्हाग स्पर्श तक नहीं कर सकते। को, उसके प्रेमका बदला देने के लिए, मैं उत्सुक हूँ। __ स्थूल०-यह द्वन्द कहाँ तक सम्भव है ? यह बात सही है कि मैं वहां याचना करनेको नहीं संभूरि-जहां तक आत्मा याचना करता रहता किन्तु अर्पण व रनेको जाता हूँ, तथापि वह अपेण है, वहाँ तक । ज्योंही य चना करना बन्द हुआ- पूर्वकी स्थूल प्रीतिक उत्तर रूप होनेस, वहाँ भी मुझे सबके लिए देता ही रहे, अपने लिए कुछ न रखे- स्वार्थकी ही दुर्गन्ध आती है। संसार कोशाके समान जिसे जो चाहिए उसके पाससे ले-और दान करनेक स्त्रियोंसे भरा पड़ा है, उन सबपर अनुग्रह करनेके अभिमानको त्यागकर, देता ही जाय, त्योंही स्वार्थ लिए यह चित्त आकर्षित न होकर, केवल कोशा ही तथा परार्थकी बालकों-नादानों के लिए बाँधी गई की ओर खिंचता है, क्या इससे मेरे श्रात्मत्यागकी मर्यादाएँ टूट जाती हैं और आत्म त्यागके अनन्त अल्प मर्यादा सूचित नहीं होती ? आकाशमें आत्मा रमण करने लगता है । भद्र ! तुम संभूति०-भद्र ! वीर्यवान् आत्माएँ, जिस स्थान भी उसी प्रदेशके विहारी हो । पर, एक बार पराजित हो जाती हैं, विषयके पङ्कमें स्थूल०-नाथ ! हृदयका खिंचाव स्वार्थ बिना धंस जाती हैं, उसी स्थलपर वे विजय प्राप्त करनेके किस प्रकार सम्भव है ? यही बात मुझे खटकती है। लिए, आकांक्षायुक्त होती हैं और जहाँ तक वे याचना जिस प्रकार उस आकर्षणको मैं रोक नहीं सकता, की प्रत्येक अभिलाषाका पराभव करने योग्य पराक्रम उसी प्रकार वहाँ जानेमें भी कल्याणका कोई निमित्त प्राप्त करके, याचनाके, भारीस भारी खिंचावके स्थानदेखने में नहीं आता। पुगने शत्रु मुझे पुकारते हुए पर भी, अर्पण करनेके लिए तत्पर न हो जायँ तहाँ मालूम पड़ते हैं। तक वे आत्माएँ निर्बल तथा सत्वहीन गिनने योग्य ___ संभूति–तात ! तुम्हारी सब बातें मैं समझ हैं। कोशाके यहाँ चतुर्मास करनेके तुम्हारे खिंचावपर गया; परन्तु तुम्हारा मन वहां कुछ याचना करनेको स्वार्थकी संज्ञा घटित नहीं होती । तुम्हारी आत्मा तो जाता ही नहीं है, जाता है तो केवल अर्पण करने याचनाके उत्कृष्ट आकर्षणके स्थलपर, अर्पण करनेको को । क्या ऐसा तुम्हें प्रतीत नहीं होता?__ कसौटीपर कसे जानेके लिए उद्यत हुई है, इसी स्थूल०-प्रभो ! जिस समय मैं नवीन रुधिरका लिए उसे यह तलमलाहट हो रही है। तुम्हें अब शिकारी था, बालाओंके यौवन-ग्सको तरसता था, किसी प्रकारका भय खाना उचित नहीं है। याचना और विषयके घंटको प्रेमामृत जानकर पीता था, उस करनेका तुम्हारा स्वभाव अब एक पुराना इतिहास समय मुझपर स्थूल परन्तु अचलरूपसे जो आसक्त हो चुका है। थी, उसी कोशाके घरमें, यह चतुर्मास व्यतीत करनेको स्थूल-पर क्या साधुओंको वेश्या-गृहमें चतुमेरा मन चाहता है। पुराने समयकी सौन्दर्यलिप्सा सि करना उचित है ?

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