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किरण २]
मुनिसुव्रतकाव्यके कुछ मनोहर पद्य
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तन पदार्थ तक जहां अनुकूल वृत्ति धारण करते थे। इस प्रसंगपर एक शंका यह उत्पन्न होती है, कि इस विषयमें देखिए कवि श्री अहहास जी क्या आहारके अनंतर भगवान मुनिसुव्रतनाथने कैसे कहते हैं
मधुरवाणीस यथायोग्य पार्शर्वाद दिया ? क्यों कि जिनेऽवनी रक्षति सागरान्तां नय-प्रताप-द्वय-दीर्घ-नेत्रे। यह प्रसिद्ध है कि दीक्षा लेनेके अनंतर जिनेन्द्र 'वाचं कस्यापि नासीदपमृत्युरीतिः पीड़ा च नाल्पापि बभूव लोके ॥२८-७ यम.' होते हैं, इसीसे उनका स्तवन 'महामौनी' _ 'नय और प्रताप रूप दो विशाल नेत्रधारी जिनेन्द्र शब्दसे किया जाता है। जो हो यह विषय ध्यान देने के द्वारा सागरपर्धन्त विस्तृत पृथ्वीके शासन करनेपर योग्य है अवश्य । यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य जगत्में किसीका न तो अकाल मरण होता था, न है कि भगवान तपोवनमें 'गजेन्द्रगति' से गए । आज ईति (अतिवृष्टियादिका उपद्रव) और न किसीको थोड़ा कोई लोग साधुओंके गमनमें मंदगतिके स्थान में सा कष्ट ही होने पाता था।
उनकी द्रुतगति (Quick March ) को उचित वास्तवमें सशोसनके लिए यदि नीति और बताते हैं, उन्हें इस प्रकरणको ध्यानमें लाना चाहिये । प्रतापका सामंजस्य है, तब सर्वत्र शांति एवं समृद्धि प्रसंगवश वर्षाका वर्णन करते हुए महाकवि विचरण करती हुई नज़र आयगी।
मनोहर कल्पनाको इन शब्दोंमें बताते हैं
नीरंध्रमभ्रपटलं पिहिताखिलद्य . बहुत समय तक नीतिपूर्ण शासन करनेके अनंतर
भेजेतरां विधृतदीर्घतरां बुधारम् । एक बार एक गजराजको धर्मधारणमें तत्पर देखकर
देव्याः क्षितरुपरि लंबितदीर्घमुक्ताभगवानके चित्तमें वैराग्यकी ज्योति जाग उठी। उस
मालं विशालमिव धातृकृतं वितानम् ॥ १.१६॥ समय उन्होंने अपने माता-पिताको समझाकर अपने संपर्ण आकाशको ढांकने वाला निविड़ मेघमंडल, विजय नामक पुत्रके कंधेपर साम्राज्यका भार रखकर जिससे मोटी २ जलकी धारा निकल रही थी, ऐसा दीक्षा ली ('प्राज्यं नियोज्य तनये विजये स्वराज्य')। शोभायमान हो रहा था, मानो पृथ्वीदेवीके ऊपर
दीक्षा लेनेके बाद भगवानने राजगृहके नरेश विधाताने विशाल चंदोवा तान दिया हो, जिसमें महाराज वृषभसेनके यहाँ आहार ग्रहण किया, उस लम्बी और बड़ी मुक्तामालाएँ टॅगी हुई हैं। प्रसंगमें महाकवि वर्णन करते हुए कहते हैं-
कैसी विलक्षण कल्पना है ! आकाशको ढाँकने मुनिपरिवृढो निर्वत्यैवं तनुस्थितिमुत्तमा, वाले मेघमंडलको तो चंदोवा बनाया, और मोटी मृदुमधुरया वाचा शास्यं विधाय यथोचितं ।... धारवाली जलराशिको मुक्ताकी मालिकाएँ ! . मुनिसमुदयैरक्षिवातैश्च पौरनृणामनुव्रजितचरमः
इसी वर्षाके विषय में आगे कवि कहता हैपुण्यारण्यं गजेन्द्रगतिययौ ॥८-२३॥
रेजुः प्रसृत्य जलधिं परितोप्यशेष मुनीन्द्रने उत्तम आहारको ग्रहण करके सुमधुर मेघा मुहुमुहुरभिप्रसृताभ्रभागाः । वाणीसे आशीर्वाद देकर मुनिसमुदाय एवं पुरवा
आदानवर्षणमिषात् पयसां पयोधि सियोंके नेत्र समूह के द्वारा अनुगत गजेन्द्रके समान व्योमापि मान्त इव संशयिताशयेन ॥ १-१७ ॥ मंद गतिसे तपोवनमें प्रवेश किया।
'बार बार जल लानेके लिए जलधिकी भोर