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किरण २ ]
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होता है । यद्यपि उसमें भी कुछ त्रुटियाँ हैं—-वहाँ, पद्यानुसार कांचीकं बाद, लांबुशमें समंतभद्र के ' पाण्डुपिगड ' रूपसे ( शरीर में भस्म रमाए हुए ) रहने का कोई उल्लेख ही नहीं है, और न दशपुर में रहते हुए उनके मृष्टभोजी होनेकी प्रतिज्ञाका ही कोई उल्लेख है । परंतु इन्हें रहने दीजिये, सबसे बड़ी बात यह है कि उस में ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं है जिससे यह मालूम होता हो कि समंतभद्र उस समय भम्मक व्याधि युक्त थे अथवा भोजनकी यथेष्ट प्राप्ति के लिये ही उन्होंने वे वेष धारण किये थे बहुत संभव है कि कांचीमें 'भस्मक' व्याधिकी शांति के बाद समंतभद्रन कुछ अर्से तक और भी पुनर्जिनदीक्षा धारण करना उचित न समझा हो; बल्कि लगे हाथीं शासनप्रचार के उद्देशसे, दूसरे धर्मों के आन्तरिक भेदको अच्छी तरहसे मालूम करनेके लिये उस तरह पर भ्रमण करना जरूरी अनुभव किया हो और उसी भ्रमणका उक्त पद्य में उल्लेख हो; अथवा यह भी हो सकता है कि उक्त पद्य में समंतभद्रके निथमुनिजीवन से पहले की कुछ घटनाओं का उल्लेख हो जिनका इतिहास नहीं मिलता और इस लिये जिन पर कोई विशेष राय कायम नहीं की जा सकती । पद्य में किसी क्रमिक भ्रमणका अथवा घटनाओंक *कुछ जैन विद्वानोंने इस पद्यका अर्थ देते हुए 'मलमलिन - तनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः' पदोंका कुछ भी अर्थ न देकर उसके स्थान में 'शरीरमें रोग होनेसे' ऐसा एक खंडवाक्य दिया है; जो ठीक नहीं है । इस पद्यमें एक स्थानपर 'पाण्डुपिण्डः' और दूसरे पर 'पाण्डुराग' पद श्राये हैं जो दोनों एक ही अर्थके वाचक हैं और उनसे यह स्पष्ट है कि समन्तभद्रने जो वेत्र वाराणसी में धारण किया है वही लाम्बुशमें भी धारण किया था । हर्षका विषय है कि उन लेखकों से प्रधान लेखकने मेरे लिखने पर अपनी उस भूलको स्वीकार किया है और उसे अपनी उस समयकी भूल माना है।
समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल
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क्रमिक होनेका उल्लेख भी नहीं है; कहाँ कांची और कहाँ उत्तर बंगालका पुण्ड्रनगर ! पुण्ड्रसे वाराणसी निकट, वहां न जाकर उज्जैन के पास 'दशपुर ' जाना और फिर वापिस वाराणसी आना, ये बातें क्रमिक भ्रमणको सूचित नहीं करतीं । मेरी राय में पहली बात ही ज्यादा संभवनीय मालूम होती है । अस्तु; इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, ब्रह्म नेमिदत्तकी कथा के उस अंशपर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता जो कांचीसे बनारस तक भोजनके लिये भ्रमण करने और बनारस में भस्मक व्याधिकी शांति आदिसे सम्बन्ध रखता है, खासकर ऐसी हालत में जब कि 'राजावलिकथे' माफ तौरपर कांची में ही भस्मक व्याधिकी शांति आदिका विधान करती है और सेनगणकी पट्टावली से भी उसका बहुत कुछ समर्थन होता है ।
जहाँ तक मैंने इन दोनों कथाओं की जाँच की है मुझे ' राजावलिकथे' में दी हुई समंतभद्रकी कथा में बहुत कुछ स्वाभाविकता मालूम होती है— मणुवकहल्लि ग्राम में तपश्चरण करते हुए भस्मक व्याधिका उत्पन्न होना, उसकी निःप्रतीकारावस्थाको देखकर समंतभद्रका गुरुसे सल्लेखना व्रतकी प्रार्थना करना, गुरुका प्रार्थनाको अस्वीकार करते हुए मुनिवेष छोड़ने और रोगोपशांति के पश्चात् पुनर्जिनदीक्षा धारण करने की प्रेरणा करना, 'भीमलिंग ' नामक शिवालयका और उसमें प्रतिदिन १२ खंडुग परिमाण तंडुलान्नके विनियोगका उल्लेख, शिवकोटि राजाको आशीर्वाद देकर उसके धर्मकृत्यों का पूछना, क्रमशः भोजनका अधिक अधिक बच्चना, उपसर्गका अनुभव होते ही उसकी निवृत्तिपर्यन्त समस्त आहार- पानादिकका त्याग कर के समन्तभद्रका पहले से ही जिनस्तुतिमें लीन होना, चंद्रप्रभकी स्तुति के बाद शेष तीर्थकरों की स्तुति