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समन्तभद्रका मुनिजीवन और श्रापत्काल
[ सम्पादकीय ]
परिशिष्ट
स्वामी समन्तभद्रकी 'भस्मक' व्याधि और उसकी उपशान्ति श्रादिके समर्थन में जो ' वंद्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटुः' इत्यादि प्राचीन परिचय वाक्य श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं० ५४ (६७) परसे इस लेख में ऊपर ( पृ० ५२ पर) उद्धृत किया गया है उसमें यद्यपि ' शिवकोटि ' राजाका कोई नाम नहीं है; परंतु जिन घटनाओंका उसमें उल्लेख है वे ' राजावलिकथे ' श्रादिके अनुसार शिवकोटि राजा के 'शिवालय' से ही सम्बन्ध रखती हैं । ' सेनगरणकी पट्टावली' से भी इस विषयका समर्थन होता है । उसमें भी 'भीमलिंग ' शिवालय में शिवकोटि राजाके समंतभद्रद्वारा चमत्कृत और दीक्षित होने का उल्लेख मिलता है । साथ ही, उसे ' नवतिलिंग ' देशका ' महाराज सूचित किया है, जिसकी राजधानी उस समय संभवत: 'कांची ' ही होगी । यथा
" (स्वस्ति) नवतिलिङ्गदेशाभिरामद्राक्षाभिगमभीमलिङ्गस्वयंन्यादिस्ताद - कोस्कीरण रुन्द्रसान्द्रचन्द्रिका विशदयशः श्री चन्द्र जिनेन्द्र सद्दर्शनममुत्पन्नकौतूहलकलिन शिवकोटिमहाराजतपोराज्यस्था पकाचार्य श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिनाम्”
,
1 'स्वयं से 'कीरण' तकका पाठ कुछ श्रशुद्ध जान पड़ता है । * 'जैन सिद्धान्तभास्कर' किरण १ ली, पृ० ३८ ।
इसके सिवाय, 'विक्रान्तकौरव' नाटक और श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १०५ (नया नं० २५४) से यह भी पता चलता है कि ' शिवकोटि ' समंतभद्र के प्रधानं शिष्य थे । यथा
शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा शिवायनः शास्त्रविदां वरेण्यौ । कृत्स्नश्रुतं श्रीगुरुपादमूले ह्यधीतवती भवतः कृतार्थौ ॥ +
- विक्रान्तकौरव
तस्यैव शिष्यश्शिवकोटिसूरिः तपोलतालम्बनदेहयष्टिः । संसारवाराकरपोतमेतत् तत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार ॥
- श्र० शिलालेख ' विक्रान्तकौरव' के उक्त पद्य में ' शिवकोटि ' के साथ ' शिवायन' नामके एक दूसरे शिष्यका भी उल्लेख है, जिसे ' राजावलिकथे' में 'शिवकोटि ' राजाका अनुज (छोटा भाई) लिखा है और साथ ही यह प्रकट किया है कि उसने भी शिवकोटि के साथ समन्तभद्र से जिनदीक्षा ली थी ; परंतु शिलालेख
+ यह पद्य 'जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय' की प्रशस्ति में पाया जाता है। * यथा - शिवकोटिमहाराजं भव्यनप्पुदरि निजानुजं वेरस.. संसारशरीरभोगनिवेंगदि श्रीकंठनेम्बसुतंगे राज्यमनित्तु