________________
किरण २]
प्रभाचंद्रका समय
१३१
का व्याख्यान करते हुए 'टीकाकार' के नामसे न्यायकु०- ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचंद्रे च मोक्षविचारे चन्द्र में की गई उक्त कारिकाकी व्याख्या उद्धृत की है। विस्तरतः प्रत्याख्याताः।" इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि ईसाकी १२ वीं शताब्दीके विद्वान देवभद्रने न्यायाव- प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्रग्रन्थ इन तारटीका-टिप्पण (पृ० २५, ७६) में प्रभाचन्द्र और टीकाओंसे पहिले रचे गए हैं । अतः प्रभाचंद्र ई० की उनके न्यायकुमुदचंद्रका नामोल्लेख किया है। अतः १२ वीं शताब्दीक बादके विद्वान् नहीं हैं। इन १२ वीं शताब्दी तकके विद्वानोंके उल्लेखोंके (३)-वादिदेवसूरिका जन्म वि० सं० ११४३
आधारसे यह प्रामाणिकरूपसे कहा जा सकता है तथा स्वर्गवास वि० सं० १२२६ में हुआ था। ये वि० कि प्रभाचन्द्र ई० १२ वो शताब्दीके बादके विद्वान् ११७४ में आचार्यपद पर बैठे । संभव है इन्होंने वि० नहीं हैं।
- सं० ११७५ ( ई० १११८ ) के लगभग अपने प्रसिद्ध (२) रत्नकरण्डश्रावकाचार और समाधितन्त्रपर
प्रन्थ स्याद्वाद्गत्नाकरकी रचना की होगी। स्याद्वाद्प्रभाचंद्रकृत टीकाएँ उपलब्ध हैं । पं० जुगलकिशोरजी
रत्नाकरमें प्रभाचंद्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायमुख्तारने' इन दोनों टीकाओंको एक ही प्रभाचंद्रके
कुमुदचंद्र का न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया द्वाग रची हुई मिद्ध किया है। आपके मतसे ये
है किन्तु कवलाहारसमर्थन प्रकरणमें तथा प्रतिबिम्ब प्रभाचंद्र प्रमेयकमलमार्तण्ड श्रादिकं रचयितासे
चर्चा में प्रभाचंद्र और प्रभाचंदके प्रमेयकमलमार्तण्ड भिन्न है । रत्नकरण्डटीकाका उल्लेख पं० आशाधरजी
का नामोल्लेग्व करके खंडन भी किया गया है । अतः द्वारा अनागारधर्मामृत-टीका (अ० ८ श्लो० ९३) में किर जाने के कारण इस टीकाका रचनाकाल वि०
प्रभाचंद्र के समयकी उत्तरावधि अन्ततः ई० ११००
. सुनिश्चित होजाती है। सं० १३०० से पहिलेका अनुमान किया है, क्योंकि अ० .
(४) जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सूत्रधष्टी० वि०सं० १३००में बनकर समाप्त हुई थी अन्ततः
पाठपर श्रुतकीर्तिने 'पंचवस्तु प्रक्रिया बनाई है। अत: मुख्तार सा० इस टीकाका रचनाकाल विक्रमकी १३ वीं शताब्दीका मध्यभाग मानते हैं। अस्तु, फिलहाल
कीर्ति कनड़ी चंद्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविके
गुरु थे। अग्गलकविने शक २०११ ई० १०८९ में मुख्तार सा० के निर्णयके अनुसार इसका रचनाकाल वि० १२५० ( ई० ११९३) मान कर प्रस्तुत विचार
चन्द्रप्रभचरित्र पूर्ण किया था। अतः श्रुतकीतिका करते हैं।
समय भी लगभग ई० १०७५ होना चाहिए । इन्होंने रत्नकरण्डश्रावकाचार (पृ०६) में केवलिकव- अपनी प्रक्रियामें एक 'न्यास' ग्रन्थका उल्लेख किया है। लाहारका न्यायकुमुदगतशब्दावलीका अनुसरण संभव है कि यह प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर करके खंडन करते हुए लिखा है कि-"तदलमतिप्रसङ्गेन नामका ही न्यास हो। यदि ऐसा है तो प्रभाचंद्रकी प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचंद्रे प्रपञ्चतः प्ररू- उत्तगवधि ई० १०७५ मानी जा सकती है। पणात्"। इसी तरह समा०टी०(पृ० १५)में लिखा है- शिमं गा जिलेके शिलालेख नं० ४६ से ज्ञात "यैः पुनर्योगसांख्यैः मुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता होता है कि पूज्यपादने भी जैनन्द्र-न्यासकी रचना
१ देखो, रत्नकरण्डश्रावकाचार भूमिका पृ० ६६ से। की थी । यदि श्रुतकीर्तिने न्यास पदसे पूज्यपादकृत