________________
कर्मबन्ध और मोक्ष
किरण २ ]
यदि किसी जीवके श्रघातिकर्म प्रकृतियोंमें शुभयोग होता है तो उस समय उसके सातावेदनीय श्रादि पुष्य प्रकृतियोंका बंध होता है । और यदि अशुभयोग होता है तब असाता वेदनीय आदि पाप प्रकृतियोंका बंध होता है । तथा मिश्रयोग होनेपर पुण्य प्रकृतियां और पापरूप दोनों प्रकृतियों का बंध होता है ।
जब श्रात्मामें कर्मबन्ध होता है तब उसका बंध होने के साथ ही, प्रकृति-प्रदेश-स्थिति और अनुभागके भेदसे चतुविधरूप परिणमन हो जाता है, जिस तरह खाए हुए भोजनादिका अस्थि, मासादि सप्तधातु और उपधातु रूपसे परिणमन हो जाता है । इनमेंसे प्रथमके दो बंध प्रकृति और प्रदेश तो योगसे होते हैं स्थिति और अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं । मोहके उदयसे जो मिथ्यात्व और क्रोधादि1 रूपभाव होते हैं। उन सबको सामान्यतया 'कषाय' कहते हैं । कषायसे ही कर्मोंका स्थिति बन्ध होता है अर्थात् जिसकर्मका जितना स्थितिबंध होता है उसमें बाधाकालको छोड़कर जब तक उसकी वह स्थिति पूर्ण नहीं हो जाती तबतक समय समय में उस प्रकृतिका उदय श्राता ही रहता है । किन्तु देवायु, मनुष्यायु और तिर्यचायुके बिना न्य सभी घातिया श्रघातिया कर्मप्रकृतियोंका मन्द कषायसे अल्प स्थिति बंध होता है और तीव्रकषायके उदयसे अधिक स्थिति बन्ध होता है । परन्तु उक्त तीनों श्रायुत्रोंका मन्दकषायसे अधिक और तीव्रकषायसे अल्प (थोड़ा ) स्थिति बंध होता है । इस कषायके द्वाराही कर्मप्रकृतियोंमें अनुभाग- शक्तिका विशेष परिणमन होता है । अर्थात् जैसा अनुभागबंध होगा उसीके अनुसार उन कर्मप्रकृतियोंका उदयकाल में अल्प या बहुत फल निष्पन्न होगा । घातिकर्मकी सब प्रकृतियोंमें और घातिकर्मकी पाप प्रकृतियोंमें तो मन्दकषायसे थोड़ा अनुभागबंध होता है और तीव्रकषाय से बहुत । किन्तु पुण्यप्रकृतियोंमें मन्दकषायसे वहुत और
१४३
तीव्रकषायसे अल्प ( थोड़ा ) अनुभाग बन्ध होता है । इस तरहसे कषाय स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके विशेष परिणमनमें कारण है । परन्तु इन सब कारणो में कषाय ही कर्मबन्धका प्रधान कारण है । इसीलिये जब तक जीवकी सकषाय परिणति रहती है तब तक चारों प्रकारका बंध प्रतिसमय होता रहता है, किन्तु जब कषायकी मुक्ति हो जाती है— आत्मासे कषायका सम्बन्ध छूट जाता है तब कषायसे होनेवाला उक्त दो प्रकारका बंध भी दूर हो जाता है । इसी कारण आगम में यह बताया गया है कि 'कषाय
मुक्तिः किल मुक्तिरेव' अर्थात् कषायकी मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है ।
इस कर्मबंधन से छूटनेका अमोघ उपाय, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रकी प्राप्ति है । इन तीनोंकी पूर्णता एवं परम प्रकर्षतासे ही ग्रात्मा कर्मके सुदृढ़ बन्धन से मुक्त हो जाता है और सदा अपने श्रात्मोत्थ अव्यावाध निराकुल सुखमें मग्न रहता है ।
तत्त्वार्थ के श्रद्धानको 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं - श्रथवा जीव, जीव, प्रसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सप्त तत्त्वरूप अर्थके श्रद्धानको — प्रतीतिको सम्यग्दर्शन कहते हैं । सम्यग्दर्शन श्रात्माकी निधि है और इसकी प्राप्ति I दर्शन मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय, क्षयोपशमादिसे होती है । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें तीन कारण हैं—भवस्थितिकी सन्निकटता, कालादिलब्धिकी प्राप्ति और भव्यत्वभावका विपाक । इन तीनों कारणोंसे जीव सम्यक्त्वी बनता है * । इन सब कारणों में भव्यत्वभावका विपाक ही मुख्य कारण है सम्यक्त्वके होनेपर ४१ कर्मप्रकृतियोंका बंध होना क जाता है । सम्यग्दर्शन मोक्ष महलकी पहली सीढ़ी है, इसके * दैवात्कालादि संलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे । भव्यभावविपाकाद्वा जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥
-पंचाध्यायी, २, ३७८