________________
१४८
अनेकान्त
सुखलालका दीक्षित नाम सुखलाभ, राजमलका राजसुन्दर, रत्नसुन्दर आदि ।
तपागच्छ :
लक्ष्मीसागरसूरि (सं० १५०८–१७ ) के मुनियोंके नामान्त पद - " तिलक, विवेक, रुचि, राज, सहज, भूषण, कल्याण, श्रुत, शीति, प्रीति, मूर्त्ति, प्रमोद, आनंद, नन्दि, साधु, रत्न, मंडण, नंदन, वर्द्धन, ज्ञान, दर्शन, प्रभ, लाभ, धर्म, सोम, संयम, हेम, क्षेम, प्रिय, उदय, माणिक्य, सत्य, जय, विजय, सुन्दर, सार, धीर, वीर, चारित्र, चंद्र, भद्र, समुद्र, शेखर, सागर, सूर, मंगल, शील, कुशल, विमल, कमल, विशाल, देव, शिव, यश, कलश, हर्ष, हंस, ५७ इत्यादि पदान्ताः सहस्रशः ।
( सोमचारित्र कृत " गुरुगुण" रत्नाकर काव्य द्वितीयसर्ग ) ।
हीरविजयसूरिजी के समुदायकी १८ शाखायें:१ विजय, २ विमल, ३ सागर, ४ चंद्र, ५ हर्ष, ६ सौभाग्य, ७ सुन्दर, ८ रत्न, ९ धर्म, १० हंस, ११ आनंद, १२ वर्द्धन, १३, सोम, १४ रुचि, १५ सार, १६ राज, १७ कुशल, १८ उदय । (ऐ० सज्झायमाला पृ० १० )
[ वर्ष ४
है । इसी प्रकार इनके शिष्य जिनचन्द्रसूरिजी से चतुर्थ पट्ट पर यही नाम रखना रूढ़ होगया है ।
२ गुर्वावली से स्पष्ट है कि उस समय सामान्य आचार्य पदके समय इसी प्रकार ‘उपाध्याय', 'वाचनाचार्य' पदों एवं साध्वियों के 'महत्तरा' पद प्रदानके समय भी कभी कभी नाम परिवर्तन-नवीन नामकरण होता था ।
परिपाटियें:
नंदियोंके सम्बन्धमें खरतरगच्छ में कई विशेष परिपाटियें देखने एवं जाननेमें आई हैं और उनसे कई महत्वपूर्ण बातों का पता चलता है, अतः उनका विवरण नीचे दिया जाता है:
-
१ खरतरगच्छ के आदि पुरुष जिनेश्वरसूरिजी से पट्टधर आचार्यों के नामका पूर्वपद 'जिन' रूढ़ होगया
३ तपागच्छादिमें गुरु-शिष्यका नामान्त पद एक ही देखा जाता है, पर खरतरगच्छ में यह परिपाटी नहीं है, गुरुका जो नामान्त पद होगा वही पद शिष्य के लिये नहीं रखे जाने की खरतरगच्छ में एक विशेष परिपाटी है + । इससे जिस मुनिने अपने ग्रंथादि में गच्छका उल्लेख नहीं किया है पर यदि उसके गुरुका नामान्त पद उससे भिन्न है तो उसके खतरगच्छीय होनेकी विशेष सम्भावना की जा सकती है ।
५ सब मुनियोंकी दीक्षा पट्टधर आचार्यके हाथसे : ही होती थी । क्वचित् विशेष कारणसे वे अन्य श्राचार्य महाराज, उपाध्यायों आदिको आज्ञा देते थे तब अन्य भी दीक्षा देसकते थे । नवदीक्षित मुनियोंका नामान्तपद-सम्बन्धी खरतरगच्छ की कई विशेष नामकरण पट्टधर सूरि स्थापित नंदीके अनुसार ही होता था । सबसे अधिक नंदीकी स्थापना युग प्रधान जिनचन्द्रसूरिजी ने की थी । उनके द्वारा स्थापित ४४ नंदियों की सूची हमारे लिखे हुए 'यु० जिनचन्द्र* अपवाद 'अभयदेवसूरि, पर वे पहले मूलपट्टधर नहीं थे,
इसीलिए उनका पूर्व नाम ही प्रसिद्ध रहा ।
+ अपवाद 'कविजिनहर्ष' पर ऐसा होनेका भी विशेष कारण होगा । कविवर जिनहर्ष के लिए भी हमने एक स्वतंत्र लेख लिखा है ।
४ साध्वियों के नामन्त पदोंके लिये नं० ३ वाली बात न होकर गुरुणी शिष्यरणीका नामान्त पद एक ही देखा गया है ।