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जैनमुनियोंके नामान्त पद
(ले०-अगरचन्द नाहटा, बीकानेर )
जिस प्रकार बालकोंका नामकरण अपने अपने इसके सम्बन्धमें कोई उल्लेख नहीं पाया जाता है। प्रान्तों, जातियोंके पूर्व-पुरुषों एवं प्रचलित नामोंके पर चैत्यवासके समयमें इस प्रथाका प्रचार हम अवश्य अनुकरणरूप होता है। जैसे:-मारवाड़ प्रान्तमें मनुष्यों देखते हैं, अतः यह धारणा सहज होजाती है कि के नामान्त पद "लाल, चन्द, गज, मल्ल, दान नाम परिवतेनका विधान तभीसे प्रारम्भ हुआ प्रतीत आदि होते हैं-उसी प्रकार मुनियोंके भी भिन्न भिन्न होता है । विचार करने पर इसका कारण जिस प्रकार अनेक नामान्त पद पाये जाते हैं। आजकल दिगम्बर वेषका परिवर्तन होजानेपर गृहस्थ सम्बन्धी भावनाओं समाजमें तो मुनियों का नामान्तपद 'सागर' देखने में का त्याग करनेमें सुगमता रहती है उसी प्रकार नामआता है, यथाः-शान्तिसागर, कंथसागर, और श्वेता- परिवर्तन कर देने पर गृहस्थके नाम आदिका मोह म्बर समाजको तीन सम्प्रदायोमेंसे १ स्थानकवासी- नहीं रहता या कम हो जाता है यही मालूम देता है। ढुंढ़क २ तेरहपन्थी इन दो समुदायोंमें तो पर्वके इस प्रकारके नाम परिवर्तनकी प्रथा वैदिक सम्प्र(गृहस्थावस्थाक) नाम ही मुनिअवस्थामें भी कायम दायमें भी पाई जाती है। 'दर्शनप्रकाश' नामक ग्रन्थ रखते हैं, मूर्तिपूजक सम्प्रदायके तपागच्छ सागर में सन्यासियोंके दस प्रकारके नामोंका उल्लेख पाया एदं विजय, खरतरगच्छमें 'सागर' और 'मनि'. पाय- जाता है । यथाः-१ गिरी-सदाशिव, २ पर्वत-पुरुष चंद्रगच्छमें 'चन्द्र' और अंचलगच्छ में 'सागर' ये ही ३ सागर-शक्ति, ४ वन-रुद्र, ५ अरिण-कार ६ तीर्थनामान्त पद पाये जाते हैं, पर जब पूर्ववर्ती प्राचीन ब्रह्म, ७ आगम-विष्णु, ८ मठ-शिव, ९ पुरी-अक्षर, इतिहासका अध्ययन करते हैं तो अनेक नामाम्त पदों १० भारती परब्रह्म । . का उल्लेख एवं व्यवहार देखनेमें आता है। अतः इस 'भारतका धार्मिक इतिहास' ग्रन्थके पृ० १८० निबन्धमें उन्हीं मुनिनामान्त पदोंकी संख्या पर में १० नामान्त पद ये बतलाए हैं-१ गिरी, २ पुरी, विचार किया जा रहा है।
. ३ भारती, ४ सागर, ५ श्राश्रम, ६ पर्वत, ७ तीर्थ, ___ इस सम्बन्धमें सर्वप्रथम यही प्रश्न होता है कि सरस्वती, ९ वन १० आचार्य । गृहस्थावस्थाको त्यागकर मुनि होजाने पर नाम क्यों श्वे० जैन ग्रंथों में 'नामकरणविधि का सबसे बदले जाते हैं यानि नवीन नामकरण क्यों किया जाता प्राचीन एवं स्पष्ट उल्लेख रुद्रपल्लीय खरतरगच्छके है ? और यह प्रथा कितनी प्राचीन है ?
आचार्य श्री वर्द्धमानसूरि जी रचित (सं० १४६८ का ___ महावीरकालीन इतिहासके अवकोलनसे नाम -
* स्व० आत्मारामजी लिखित सम्यक्त्वशल्योद्धार पृ० १३ में परिवर्तनकी प्रथा दृष्टिगोचर नहीं होती और पिछले 'पञ्चवस्तु' का उल्लेख किया है, पर वह हमारे अवलोकन ग्रंथों में भी इस रीतिका कबसे और क्यों प्रचार हुआ? में नहीं आया ।