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अनेकान्त
[वर्ष ४
अपनी अपनी सत्ता अलग ही रखते हैं । इसी तरह यद्यपि कषाय और योग । तत्त्वार्थके विपरीत श्रद्धानको 'मिथ्यात्व' आत्मा और कर्म इस समय एकमेक सरीखे हो रहे हैं परन्तु कहते हैं । अथवा अपने स्वरूपसे भिन्न पर पदाथोंमें आत्मआत्मा और कर्म अपने अपने लक्षणादिसे अपनी अपनी त्व बुद्धिरूप जीवके विपरीताभिनिवेशको 'मिथ्यात्व' कहते सत्ता जुदी ही रखते हैं कोई भी द्रव्य अपने स्वभावको नहीं हैं। मिथ्यात्व जीवका सबसे प्रबल शत्रु है, संसार परिभ्रमण छोड़ते । इसके सिवाय, तपश्चरणादिके द्वारा कर्मोंका श्रोत्मा- का मुख्यकारण है और कर्मबंधका निदान है । इसके रहते से सम्बन्ध छूट जाता है-श्रात्मा और कर्म अलग अलग हुए जीवात्मा अपने स्वरूपको नहीं प्राप्त कर सकता है । हो जाते हैं इससे भी उक्त दोनों द्रव्योंकी भिन्नता स्पष्ट षटकाय, पाँच इन्द्रिय और मन इन १२ स्थानोंकी हिंसासे
विरक्त नहीं होना 'अविरति' है । उत्तमक्षमादि दशधर्मके कोंके मूल पाठ भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, पालनमें. तथा पांच इन्द्रियोंके निग्रह करनेमें. और अात्मवेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम, गोत्र और अंतराय । इन स्वरूपकी प्राप्तिमें जो अनुत्साह एवं अनादररूप प्रवृत्ति होती अाठ कर्मोकी उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं । कर्मकी इन अष्ट- है उसे 'प्रमाद' कहते हैं । जो आत्माको कषे अर्थात् दुःखदे मूल प्रकृतियोंको दो भेदोंमें बांटा जाता है, जिनका नाम उसे 'कषाय' कहते हैं । कषायसे आत्मामें रागादि विभावघातिकर्म और अघातिकर्म है। जो जीवके अनुजीवीगुणोंको भावोंका उद्गम होता रहता है और उससे अात्मा कलुषित घातते हैं-उन्हें प्रकट नहीं होने देते-उनको घातिकर्म
रहता है और कलुषता ही कर्मबन्धमें मुख्य कारण है, वैर
त कहते हैं। और जो जीवके अनुजीवीगुणोंको नहीं घातते
विरोधको बढ़ानेवाली है-और शांतिकी घातक है। मन, उन्हें अघातिकर्म कहते हैं । इन अष्ट कर्मोमेंसे मोहनीयकर्म
वचन और कायके निमित्तसे होने वाली क्रियासे युक्त आत्माका महान् शत्रु है इससे ही अन्यकर्मोमें घातकत्व
श्रात्माके जो वीर्य विशेष उत्पन्न होता है उसे 'योग' कहते हैं । शक्तिका प्रादुर्भाव होता है। कर्मबन्धनसे आत्मा पराधीन
अथवा जीवकी परिस्पन्दरूप क्रियाको 'योग' कहते हैं । योग दो और दुःखी रहता है, उसकी शक्तियोंका पूर्ण विकास नहीं
प्रकारका है,शुभयोग और अशुभ योगादेवपूजा,लोकसेवा,और हो पाता । परन्तु इन कर्मोका जितने अंशोंमें क्षयोपशमादि
अहिंसा आदि धार्मिक कार्योंमें जो मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति रहता है उतने अंशोंमें श्रात्मशक्तियाँ भी विकसित रहती हैं।
होती है उसे 'शुभयोग' कहते हैं। और हिंसा-झूठ-कुशीला. जब जीव क्रोध-मान-माया और लोभादिरूप सकषाय
दिक पापकार्योंमें जो प्रवृत्ति होती है उसे 'अशुभयोग' कहते परिणमनको प्राप्त होता हुअा योगशक्तिके द्वारा आकर्षित
हैं । जब तक जीव सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त कर लेता तब तक कर्मरूप होने योग्य पुद्गलद्रव्यको ग्रहण करता है उसे
इन दोनों योगोंमेंसे कोई भी एक योग रहे परन्तु उसके बन्ध कहते हैं ।
घातियाकर्मकी सर्व प्रकृतियोंका बंध निरन्तर होता रहता है । कर्मबन्धके पांच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद,
अर्थात् इस जीवका ऐसा कोई भी समय अवशिष्ट नहीं रहता *जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा ।
जिसमें कभी किसी प्रकृतिका बंध न होता हो। गेण्हइ पोग्गलदव्वे बन्धो सो होदि णायव्वो ॥
हाँ इतनी विशेषता ज़रूर है कि मोहनीयकर्मकी हास्य, -मूलाचारे, वट्टकेरः, १२, १८३ सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पगलानादत्ते स बन्धः। शोक, रति-अरतिरूप दो युगलोंमें और तीन वेदोमेंसे एक
-तत्त्वार्थसूत्रे, उमास्वाति,८,१ समयमें सिर्फ एक एक प्रकृतिका ही बंध होता है । परन्तु