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किरण २]
राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल
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नाता है । कविवर राजमल्ल जैसे विद्वान्की लेखनी चित्रं महचदिह मानधनो यशस्ते सं लिखा होनेके कारण वह कोरा कवित्व न होकर
छंदोमयं नयति यस्कविराजमल्लः । कुछ महत्त्व रखता है, इससे विद्वानोंको दूसरे साधनों
यद्वाद्रयोपि निजसारमिह द्रवंति पर से राजा भारमल्लके इतिहासकी और और बातों पुण्यादयोमयतनोस्तव भारमल्ल ॥ ६ ॥ (७) को खोजने तथा इस पथ परसे उपलब्ध हुई बातों इनमें से प्रथम पद्यमें पथमजिनेन्द्र (आदिनाथ) पर विशेष पकाश डालनेके लिये प्रोत्साहन मिलेगा को नमस्कार किया गया है और उन्हें केवलकिरण
और इस तरह राजा भाग्मल्लका एक अच्छा इति- दिनेश' बतलाते हुए लिखा है कि उनकी ज्ञानज्योति हास तय्यार हो सकेगा । साथ ही, इस ग्रंथकी दूसरी में यह जगत् आकाशमें एक नक्षत्रकी तरह भासमान पाचीन पतियाँ भी खोजी जायँगी । यह पति है।' अपनी लाटीसंहिताके पथम पद्यमें भगवान अनेक स्थानों पर बहुत कुछ अशुद्ध जान पड़ती है। को नमस्कार करते हुए भी कविवरने यही भाव व्यक्त पकाशन-कार्यके लिये दूमरी प्रतियोंके खोजे जानेकी किया है, जैसा कि उसके “ यच्चिति विश्वमशेष खास जरूरत है । अस्तु ।
व्यदीपि नक्षत्रमेकमिव नभसि" इस उ ___ कविवग्ने, अपनी इस रचनाका सम्बंध व्यक्त है। साथ ही, उसके भगवद्विशेषण में 'ज्ञानानन्दात्मान' करते हुए, मंगलाचरणादिके रूपमें जो सात संस्कृत लिखकर ज्ञानके साथ आनंदको भी जोड़ा है । पद्य शुरूमें दिये हैं वे इस प्रकार हैं :
लाटीसंहिताके प्रथम पद्यमें जो साहित्यिक संशोधन केवलकिरणदिनेशं प्रथमजिनेशं दिवानिशं वंदे । और परिमार्जन दृष्टिगोचर होता है उससे ऐसी ध्वनि यज्योतिषि जगदेतद्योम्नि नक्षत्रमेकमिव भाति ॥ १॥ निकलती हुई जान पड़ती है कि कविकी यह कृति जिन इव मान्या वाणी जिनवरवृषभस्य या पुनः फणिनः । लाटीसंहितासे कुछ पूर्ववर्तिनी होनी चाहिये । वर्णादिबोधवारिधि-तराय पोतायते तरा जगतः ॥
दूसरे पद्यमें जिनवर वृषम (आदिनाथ) की पासीन्नागपुरीयपक्षतिरतः साक्षात्तपागच्छमान्
वाणीको जिनदेवके समान ही मान्य बतलाया है, और सूरिः श्रीप्रभुचंद्रकीर्तिरवनौ मूर्धाभिषिक्तो गणी।
फणीकी वाणीको अक्षरादिबोधसमुद्र से पार उतरनेके तत्पट्ट विह मानसूरिरभवत्तस्यापि पट्टधुना
लिये जहाजके समान निर्दिष्ट किया है। संसम्राडिव राजते सुरगुरुः श्रीहर्ख (र्ष) कीर्तिमहान् ॥
तीसरे पद्यमें यह निर्देश किया है कि आजकल श्रीमच्छीमालकुले समुदयददयाद्विदेवदस्य।
हर्षकीर्ति नामके साधु सम्राटकी तरह राजते हैं, जो रविरिव राँक्याणकृते व्यदीपि भूपालभारमल्लाह्नः ॥३॥(४)
कि मानसूरिके पट्टशिष्य और उन श्रीचंद्र कीर्तिक पपट्टभूपतिरितिसुविशेषणमिदं प्रसिद्ध हि भारमल्लस्य । तल्कि संघाधिपतिर्वणिजामिति वक्षमाणेपि ॥ ४ ॥ (५)
शिष्य हैं जो कि नागपुरीय पक्ष ( गच्छ ) के साक्षात अन्येद्य : कुतुकोल्वणानि पठता छंदांसि भूयांसि भो
तपागकछी साधु थे। सूनोः श्रीसुरसंज्ञकस्य पुरतः श्रीमालचूडामणेः ।
चौथे-पाँचवें पद्योंमें बतलाया है कि-श्रीमालईपत्तस्य मनीषितं स्मितमुखासंलक्ष्य पक्ष्मान्मया * लाटीसंहिताका निर्माणकाल आश्विन शुक्ला दशमी दिग्मात्रादपि नामपिगलमिदं भाट यादुपक्रम्यते ॥५॥ (४) वि. सं. १६४१ है।