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किरण २ ]
राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल
अपना नाम भी श्राधा ही उल्लेखित किया है। जान नामोल्लेग्व भी किया गया है, जैसे :पड़ता है कविवर जहां दूसरोंका परिचय देनमें उदार “पयासिनो पिंगलायरहि ॥ २० ॥" थे वहां अपना परिचय देनेमे सदा ही कृपण रहे हैं, "अह चउमत्तहणामं फणिराम्रो पइगणं भाई....२८"
और यह सब उनकी अपने विषयमें उदासीनवृत्ति " "एहु कहइ कुरु पिंगलणागः...४६ ।" एवं ऊँची भावनाका द्योतक है-भले ही इसके द्वारा "सोलहपए"श्रा जो जाणइ थाइराइभणियाई । इतिहासज्ञोंके प्रति कुछ अन्याय होता हो।
सो छंदसत्थकुसलो सम्बकईणं च होइ महणीश्रो ॥४३|| हाँ. श्री मोहनलाल दलीचंदजी देशाई, एडवोकेट श्राद्या ज्ञेयेति मात्राणां पताका पठिता बुधैः ।। बम्बईद्वारा लिखे गये उक्त इतिहास ग्रंथ (टि०४८८) श्रीपूज्यपादपादाभिनेता हि(ही)ह विवेकिभिः ।। सं एक बात यह जानना जरूर मिलती है कि पद्म- इस मालम होता है कि कविराजमल मामने सुन्दर नामके किसी दिगम्बर भट्टारकने संवत् १६१५ अनेक प्राचीन छंदःशास्त्र मौजूद थे-श्रीपूज्यपादाचार्य (शरकलाभृत्तभू ) में "रायमल्लाभ्युदय” (पी० ३, का गलबन वह छंदःशास्त्र भी था जिसं श्रवणबेल्गोलके २५५) नामका एक क व्य ग्रंथ लिखा है, जिसमें शिलालेख नं० ४०में उनकी सूक्ष्मबुद्धि (पचनाचातुर्य) ऋषभादि २४ तीर्थ करोंका चरित्र है और उसे 'राय- को ख्यापित करने वाला लिग्वा है-और उन्होंने मल्ल' नामक सुचरित्र श्रावकके नामांकित किया है। उन मबका दोहन एवं पालोडन करके अपना यह संभव है इस प्रथपरस राजमल्लका कोई विशेष ग्रंथ बनाया है। और इसलिए यह ग्रन्थ अपने विषय परिचय उपलब्ध हो जाय । अतः इस प्रथको अच्छी में बहुत प्रामाणिक जान पड़ता है। ग्रन्थके अंतिम तरहसे देखनेकी खास जरूरत है।
पद्यमें इस ग्रन्थका दूसरा नाम 'छंदोविद्या' दिया है उक्त सातों संस्कृत पद्योंके अनन्तर प्रस्तावित और इम गजाओंकी हृदयगंगा, गंभीरान्तःसौहित्या, छंदोग्रंथका प्रारम्भ निम्न गाथासे होता है :
जैनसंघाधीश-भाग्हमल्ल-सन्मानिता, ब्रह्मश्री कोविजय दीहो संजुत्तवरो बिंदुजुरो यालियो (?) वि चरणंते । करनवाले बड़े बड़े द्विजगजोंके नित्य दिये हुए सैंकड़ों सगुरू चंकदुमत्ते रश्रणो लहु होइ सुद्ध एकअलो ॥७(८) आशीर्वादोंसे परिपूर्णा- लग है। साथ ही, विद्वानोंस
इसमें गुरु और लघु अक्षगका स्वरूप बतलात यह निवेदन किया है कि वे इम 'छंदाविद्या' ग्रन्थको हुए लिखा है-जो दीर्घ है, जिसके परभागमें
अपने सदनुग्रहका पात्र बनाएँ । वह पद इस प्रकारहै
अपने सा संयुक्त वर्ण है, जो बिन्दु (अनुस्वार-विसर्ग.) से
क्षोणीभाजां हृत्सुरसरदिं भो गंभीरान्तः सौहित्यां युक्त है, . पादान्त है वह गुरु है, द्विमात्रिक है और
जैनानां किल संघाधीशै रहमीः कृतसन्मानां । उसका रूप वक्र (s) है । जो एकमात्रिक है वह
ब्रह्मश्रीविजई(यि)द्विजराज्ञां नित्यं दत्ताशीःशतपूया. लघु होता है और उसका रूप शुद्ध-वक्रतासे रहित
विद्वांसः सदनुग्रहपात्रां कुर्वत्वेमां छंदोविद्यां ।। सरल (।)-है। __इसी तरह आगे छंदःशास्त्रके नियमों, उपनियमों इससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ उस समय तथा नियमोंक अपवादों आदिका वर्णन ६४ ३ फ्य- अनेक राजाओं तथा बड़े बड़े ब्राह्मण विद्वनोंको भी तक चला गया है, जिसमें अनेक प्रकारसे गणोंके बहुत पसंद आया है, और इसलिये अब इसकाशीघ्र भेद, उनका स्वरूप तथा फल, षण्मात्रिकादिका स्वरूप ही उद्धार होना चाहिये।
और प्रस्तारादिकका कथन भी शामिल है । इस सब अगले लेखमें इस ग्रन्थमें वर्णित छंदोंके कुछ वर्णनमें अनेक स्थलोंपर दूसरोंके संस्कृत-पाकृत नमूने, गजाभारमल्ल श्रादिके कुछ ऐतिहासिक परिचय वाक्योंका भी “ अन्य यथा" "अण्णे जहा” जैसे सहित, दिय जावेंगे और उनमें कितनी ही पुरानी शब्दोंके साथ उद्धृत किया है, और कहीं विना ऐसे बातें प्रकाशमें आएँगी । शब्दोंके भी । कहीं कहीं किसी प्राचायके मतका स्पष्ट वीरसंवामंदिर, फाल्गुन शुक्ल ११ सं० १९९७