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(२१) भावनाएँ, आवेग-संवेग क्षीण होते चले जायें। (८) ज्ञाता-द्रष्टा प्रवृत्ति बन जाय, समताभाव से साधक ओत-प्रोत हो । (९) बाह्यमुखी प्रवृत्तियाँ सीमित होकर साधक की वृत्ति अन्तर्मुखी हो जाय । वह आत्मानन्द का रसास्वादन करे, उसी के सुख में उसकी तन्मयता और तल्लीनता बढ़ती जाय । (१०) बाह्य पदार्थों में मूभिाव-आसक्ति क्षीण हो । (११) महामंत्र की एक अन्यतम विशेषता वीर्यवत्ता है । मानव-शरीर के चैतन्य केन्द्रों-चक्रों में प्राणशक्ति सघन रूप में निहित होती है । महामंत्र के जप-ध्यान और साधना से ये चक्रस्थान जागरित हो जाते हैं जिनसे शक्ति का स्रोत फूटने लगता है और साधक को अतिशय आत्मिक वीर्य