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होकर 'नाद' जैसा बन जाय । इसे कहा जाता है, मंत्र से भावित होना, मंत्र की भावना से अभिन्न होना।
जब तक मंत्र और साधक-दो भिन्न विधाएँ रहती हैं तब तक मंत्र साकार नहीं होता, उसका साक्षात्कार नहीं होता और जहाँ भिन्नता मिटी, अभिन्नता की स्थिति आई कि मंत्र साकार हो जाता है । उसका साक्षात्कार हो जाता है । साधक को मंत्र सिद्ध हो जाता है । इसे ही कहा गया है-मंत्र सिद्धि । ___ यह मंत्र सिद्धि घनीभूत श्रद्धा और भावना की गहराई की अतिरेकता पर निर्भर है । जितनी गहरी भावना-मंत्र के साथ भावनात्मक एकात्मता होगी, सिद्धि भी उतनी ही उच्च कोटि की साधक को उपलब्ध होगी । साधक को उसमें सुख की अनुभूति होगी । ऐसा आनन्द आयेगा कि