Book Title: Anandsamucchayo Nam Yogshastram Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 5
________________ अनुसन्धान ४३ तूटतो जोवा मळे छे. ते माटे आ ग्रन्थनी अन्य प्रतिओ शोधवी रही. कर्तार्नु भाषा, कवित्व, छन्द आदि परनुं प्रभुत्व अद्भुत कहेवू पडे तेवू छे, तेनो अनुभव काव्ये काव्ये विद्वानोने थशे तेमां संशय नथी. ___ आदर्शभूत प्रति खम्भात स्थित श्री विजयनेमिसूरिज्ञानशालाना भण्डारनी छे. तेमां अनेक स्थाने लेखके पाठान्तरो पण नोंध्यां छे, तेमज टिप्पणो पण लखेल छे. ते दरेकनो आ सम्पादनमा समावेश को ज छे. आ ग्रन्थनी बीजी प्रति शोधवा माटे घणी मथामण करी. परन्तु आनी प्रत तो क्यांय होवानी भाळ न मळी, बल्के कोईने आ ग्रन्थ तथा कर्ताना नाम विषे जाणकारी पण न होय तेवू लाग्यु. फक्त कोबाना श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानभण्डारमाथी विद्वान् मुनिश्री अजयसागरजीना प्रयत्नथी आ ग्रन्थनी एक अर्वाचीन अशुद्ध प्रति मळी, जेनो उपयोग एकाद स्थाने पाठपूर्ति माटे थई शक्यो छे. ते संस्थानो आ माटे आभार मा छु. कोईक विशिष्ट योगाभ्यासी साधक आ ग्रन्थनो रूडो अभ्यास करे, अने आमां प्रतिपादित बाबतोनो रसथाळ जिज्ञासुओ समक्ष खुल्लो मूके तेवी भावना साथे विरमुं. ॥१॥ आनन्दसमुच्चयः ॥ ॐ नमः श्रीपरब्रह्मणे || यत्र वित्रासमायान्ति तेजांसि च तमांसि च । चिदानन्दमयं वन्दे महीयस्तदहं महः प्रबुद्धनिःशेषपदार्थतत्त्व: श्री बुद्धनाथः प्रथमं पुनातु । विश्वत्रयीप्रीणनबद्धबुद्धिः श्रीचैत्यनाथ: श्रियमातनोतु जयति जगदरिष्टोपद्रवद्रावहेतुस्त्रिभुवनजनरक्षादक्षिणो लोकनाथः । तदनु जयति विश्वप्लावनोद्धान्तमोहापर्णवनियमनलीलासंवरः संवरश्च ॥३॥ जयति निबिडमाद्यद्दम्भसंरम्भमुद्राविघटनपटुरुच्चैः किञ्च जालन्धरारव्यः । धवलयतु जगन्ति स्फारताराधिनाथद्युतिविजयियशोलिः कृष्णनामापि नाथः ।।४।। ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39