Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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(४) ईश्वरकृत मानी ईश्वरमां विषमताना अने बीजा दोष प्रगटाव्या . वली तेमना तरफथी तेनो खुलासो धर्म अधर्म अथवा शुन्ज अशुन कर्मने वचमां आणी ईश्वरने मात्र कर्म फलदाता कही करवामां आपी तेमां पण अन्योन्याश्रय दोष पवामां आव्यो . ए अज्ञानथी कोइए स्कंध अने तृष्णामांथी पापनो समुद्लव मान्यो . वली बीजाओ सारुं अने खोटुं अq परस्पर विरुद एक इंद्रज स्वीकार्यु . आवी अनेक कपोल कल्पनाओ ए अज्ञानना प्रनावथी प्रगटेली . खरेखरी वस्तुगति उपर विश्वास न लावी अक्षा अने शंकामां आंदोलित श्रवाय, ए बधुं ज्ञानना अन्नावरूप जे अज्ञान, वस्तुगतिने यथार्थ न अनुन्नववा रूप अज्ञान अने ते अज्ञान जन्य जे मिथ्यात्वतेनुंज परिणाम के प्रेम कहेवामां कांश पण बाध नथी. वली अज्ञान एज पापर्नु मूल . पाप करवानी वृत्ति अज्ञान जन्य . ते वस्तुगतिना ज्ञाननी न्यूनताथीयाय .
ज्यां प्रकाश ने, त्यां अंधकार संनवतोज नथी. प्रकाश न होय त्यांज अंधकारनो प्रवेश छे. प्रकाशमां सर्वदा निर्नयता, निःशंकता अने विशालता रहेली . अप्रकाशमांज नय, शंका तथा संकोच वसे छे. आश्री ए अज्ञानरुप अंधकारने नाश करवा श्रा महान् लेखके पोतानो लेख विस्तार्यो ने अने ए लेखन " अज्ञानतिमिर नास्कर " अबु सार्थक नाम आपेलुं . आधी करीने श्रे महोपकारी महाशये पोतानुं गुरुत्व पण कृतार्थ करेलु वे. ते विषे कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंसूरि पोताना योगशास्त्रमां नीचे प्रमाणे लखे - यद्वत्सहस्त्रकिरणः प्रकाशको निचिततिमिरमन्नस्य । तहजरुरत्र भवेदज्ञानध्वांतपतितस्य ॥१॥
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