Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 849
________________ प्रकाशिका टीका तृ०३वक्षस्कारः सू० २६ भरतराक्षः दिग्यात्रावर्णनम् चक्ररत्नं गङ्गायाः तन्नाम्न्याः देव्याः अष्टाहिकायां महामहिमा पाम् उत्सवरूपायां महान् महिमा अस्ति यस्यां सा तथा तस्यां निवृत्तायां सत्याम् आयुधगृहशालात:शस्त्रागारभवनतः प्रतिनिष्क्रामति चक्ररत्न निगच्छति 'पडिणिवखाम ता' प्रतिनिष्क्रम्य निर्गत्य 'जाव गंगाए महाणईए पच्चस्थिमिल्लेणं कूले गं दाहिणदिसि खंडप्पवायगुहाभिमुहे पयाए यावि होत्था' यावत गङ्गायाः महानद्याः पाश्चात्ये पश्चिमे कूले दक्षिणदिशि खण्डप्रपातगुहाभिमुखं प्रयातं प्रस्थातुं चाप्यभवत् आसीत् अत्र यावत् अन्तरिक्षप्रतिपन्न यक्षसहसपरिवृतं दिव्यत्रुटितवाद्यविशेषशब्दसन्निनादेन आपूरयदिव अम्बरतलं चक्ररत्नमिति ग्राह्यम् 'तएणं से भरहे राया जाय जेणेव खंडप्पवायगुहा तेणेव उवागच्छई' ततः खलु स भरतो नाम महाराजा यावत्. अत्र यावत्पदात् चक्ररत्नं पश्यति दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः, नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवश विसर्पद् हृदय इति, द्वादशसूत्रे अस्मिन्नेव तृतीयवक्षस्कारे इयं वक्तव्यता द्रष्टव्या सर्व तावद् वाच्यम् 'तएणं से दिव्वे चक्करयणे गंगाए देवीए अट्ठाहियाए " इत्यादि. २६॥ टीकार्थ- 'तएणं से दिव्ये चक्करयणे गंगाए देवोए अट्ठाहियाए महामहिमाए निवत्ताए समाणोए) जब गंगा देवी के विजयोपलक्ष्य में किया गया आठ दिन का महोत्सव समास हो चुका तब वह दिव्य चकरत्न 'आ उहघरमालाओ' आयुधगृह शाला से (पडिणिक्खमइ) निकला और (पडिणिक्खमित्ता जाव गंगाए महाणईए पच्चस्थिमिल्लेणं कूलेणं दाहिणदिनि खंडप्पवायगुहाभिमुहे पयाए यावि होत्था) मिलकर वह यावत् गंगा महानदोके पश्चिम कूल से होता हुआ दक्षिण दिशा में खंडप्रपात गुहा की तरफ चलने लगा यहां यावत् शब्दसे अन्तरिक्ष प्रतिपन्न यश सहस्त्र परिवृत आदिपाठ गृहीत हुआ है. (तएणं से भरहे राया जाव जेणेव खंडप्पवायगुहा तेणेव उवागच्छड) जबभरत महाराजा ने चक्ररत्न को खंडप्रपात गुहा की ओर जाते देखा तो यावत् वह भी जहां खण्डप्रपात नाम की गुफा थो. उसी ओर पहुंचा. यहां यावत्पाठ से ‘पश्यति दृष्ट्रा हष्ट तुष्ट चित्तानंदितःप्रीतिमनाः परमप्तोमनस्यितः हर्षवशविसर्पद् हृदयः " यह पाठ तृतीय वक्षस्कार में 'तपणं से दिव्वे चक्करयणे गंगाए देवीए अट्ठाहियाए ?' इत्यादि-सूत्र, २६॥ टोकार्थ-(तएणं से दिवे चक्करयणे गंगाए देवीए अट्ठाहियाए महामहिमाए नियताए समाणीए) क्यारे हेवीना विय५१क्ष्यमा आयोति माविस ने भाडोत्सव समास थ यूये। त्यारे ते हिव्य २४२न 'आउहघरसालाओ' मायुधधरशाणा मांथा (पडिणि. क्खमइ) महा२ . नीज्यु. मने (पडिणिक्खमिता जाव गंगा महाणईए पच्चथिमिल्लेण कलेणं दाहिणदिसि खड़प्पवाय गुहाभिमुखे पयाए यावि होत्था) नीजीने ते यावत् ॥ મહાનદીના પશ્ચિમ કૂલ પર થઈ ને દક્ષિણ દિશામાં ખંડ પ્રપાત ગુહા તરફ ચાલવા લાગ્યું. અહીં યાવત શબ્દથી અતરિક્ષ પ્રતિપન યક્ષ સહસ્ત્ર પરિવૃત વગેરે પાઠ ગૃહીત થયેલ છે. (तएणं से भरहे राया जाव जेणेव खंडप्पायगुहा तेणेव उवागच्छइ) न्यारे सरत राय ચક્રરત્નને ખંડ પ્રપાત ગુહા તરફ જતું જોયું તો તે પણ જ્યાં ખંડ પ્રપાત નામક ગુફા હતી. ते त२३ ५१. मी यापत पायी “पश्यति दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचि तानन्दितः प्रोतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पदहृदयः " ४ तृतीय पक्षा२मां भवामा જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર

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