Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 926
________________ ९१४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इष्टरूपेण स्वीकृत पुष्पित इव४ 'मणोगए' मनोगतः मनसि दृढरूपेण निश्चयः 'संकपे' सङ्कल्पः इत्थमेव मया कर्त्तव्यमिति राज्यभारविषयको विचारः फलित इव समुत्पन्नः ५, स चकःसङ्कल्प इत्याह- 'अभिजिए णं' इयादि । 'अभिजिएणं मए णिअगबलवी रियपुरिसक्कारपरक्कमेणं चुल्लहिमवंत गिरिसागरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे तं सेयं खलु मे अप्पाणं महया रायाभिसेणं अभिसेणं अभिसिंचावित्तए तिकट्टु एवं संपेहेइ' अभिजितं खलु मया 'राज्ञा' चक्रवर्त्तिना भरतेन निजकबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमेण निजकं - स्वकीयं बलम्शरीरशक्तिः वीर्यम् आत्मशक्तिः पुरुषकार:- पौरुषम् पराक्रमः परेषु शत्रुषु आक्रमणशक्तिः परपराजयशक्तिरित्यर्थः अत्र समाहारद्वन्द्वः तत् निजकबलवीर्य पुरुषकारपराक्रमम् तेन कारणभूतेन अत्र समाहारद्वन्द्वाद् एकवचनं नपुंसकत्वञ्च बोध्यम् क्षुल्ल हिमवगिरिसागरमर्यादा उत्तरस्यां दिशि क्षुल्ल हिमवद्विगरि क्षुद्रमिवत्पर्वतः अपरत्र च दिशात्रये सागराः त्रयः समुद्रास्तैः कृतायाः मर्यादा अवधिः तया केवलकल्पं सम्पूर्ण भारतं वर्षम् अभिजित मिति पूर्वेण सम्बन्धः तच्छ्रेयः खलु मे ममात्मानं महता राज्याभिषेकेण राज्याभिषेकरूपेण अभिषेकेन अभिषेचयितुम् अभिषेकं कारयितुम् इतिकृत्वा भारतं क्षेत्र षट्खण्डरूपमभिजितमिति एवं प्रकारेण सम्प्रेक्षते - राज्याभिषेकं विचारयति स भरतः । चक्रवर्ती ने किसी से कहा नहीं इसलिये मन में ही वर्तमान होने के कारण इसे मनोगत कहा गया है । जो भरतचक्री को संकल्प उत्पन्न हुआ वह इस प्रकार से हैं - ( अभिजिएणं मए जियग बलवोरियपुरिसक्कारपरक मेणं चुल्लहिमवंत गिरिसागरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे तं सेयं खलु मे अप्पाणं महया रायाभिसेएणं अभिसेए णं अभिसिंचावितए ति कट्टु एवं संपेहेइ ) मैंने अपने बल से शारीरिक शक्ति से, और वीर्य से, आत्मबल से तथा पुरुषकार पराक्रम से शत्रुओं को पराजित करने की शक्ति से उत्तर दिशा में जिसकी मर्यादारूप क्षुद्र हिमवत्पर्वत पड़ा हुआ है और तीन दिशाओं में जिसकी तीन समुद्र पड़े हुए हैं ऐसे इस सम्पूर्ण भरत क्षेत्र को मैंने अपने वश में कर लिया है. इसलिये अब मुझे यही योग्य है कि मैं राज्य में अपना अभिषेक कराऊं इस प्रकार का विचार कर फिर उसने ऐसा सोचा - (कल्लं पाउप्पभाए जाव जलते) कल जब रजनी प्रभात प्राय हो जावेगी और सूर्य की प्रभा चारों ओर फैल એથી મનમાંજ વિદ્યમાન હોવાથી માને મનાગત કહેવામાં આવેલ છે. ભરત ચક્રીને જે सौं४८५ उदूभव्यो ते या प्रमाणे छे - ( अभिजिवणं मप णियगबलवीरियपुरिसक्कारपरककमेणं चुल्लहिमवंत गिरिसागरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे तं सेयं खलु मे अप्पाणं महया रायाभिसेवणं अभिसेवणं अभिसिंचा वित्तर तिकटु एवं संपेहेइ) में पोताना जसथी શારીરિક શક્તિથી અને વીય થી આત્મખલથી તેમજ પુરુષકાર પરાક્રમથી શત્રુઓને પરાજિત કરવાની શક્તિથી ઉતરદિશામાં જેની મર્યાદા રૂપ ક્ષુદ્રહિમવત્ ઉભા છે.અને ત્રણ દિશાઓમાં સમુદ્ર છે. એવા આ સંપૂર્ણ ભરત ક્ષેત્રને મેં પેાતાના વશમાં કરી લીધું છે. એથી હવે મારા માટે એજ ચેાગ્ય છે કે હું રાજ્ય પર્ મારે અભિષેક કરાવડાવુ, આ પ્રમાણે વિચાર हरीने च्छा ते या प्रमाणे विचार यो (कलं पाउप्पभाप जाव जलते) असे अलात જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર

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