Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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वेरविरामणपज्जवसाणं सव्वसमुहमहोदधितित्थं । जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू सुइसी सुमुणी स संजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरति बंभचेरं।
* इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य विरोधी प्रवृत्तियों का भी उल्लेख किया है और वह इसलिए कि ये कार्य ब्रह्मचर्यसाधक को साधना से पतित करने में कारण हैं ।
अन्तिम प्रकरण अपरिग्रहसंवर का है। इसमें अपरिग्रहवृत्ति के स्वरूप, तद्विषयक अनुष्ठानों और अपरिग्रहव्रतधारियों के स्वरूप का निरूपण है। इसकी पांच भावनाओं के वर्णन में सभी प्रकार के ऐन्द्रियिक विषयों के त्याग का संकेत करते हुए बताया है कि- .
मणुन्नामणुन्न-सुब्भि-दुब्भि-राग-दोसपणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संवुडेणं पणिहितिदिए चरेज्ज धम्म ।
इस प्रकार से प्रस्तुत सूत्र का प्रतिपाद्य विषय पांच प्रास्रवों और पांच संवरों का निरूपण है। इनके वर्णन के लिए जिस प्रकार की शब्दयोजना और भावाभिव्यक्ति के लिए जैसे अलंकारों का उपयोग किया है, उसके लिये अनन्तरवर्ती शीर्षक में संकेत करते हैं। साहित्यिक मूल्यांकन
किसी भी ग्रन्थ के प्रतिपाद्य के अनुरूप भाव-भाषा-शैली का उपयोग किया जाना उसके साहित्यिक स्तर के मूल्यांकन की कसौटी है। इस दृष्टि से जब हम प्रस्तुत प्रश्नव्याकरणसूत्र का अवलोकन करते हैं तो स्पष्ट होता है कि भारतीय वाङ् मय में इसका अपना एक स्तर है।
भावाभिव्यक्ति के लिये शब्दयोजना प्रौढ, प्रांजल और प्रभावक है । इसके द्वारा वर्ण्य का समग्र शब्दचित्र पाठक के समक्ष उपस्थित कर दिया है। इसके लिए हम पंच प्रास्रवों अथवा पंच संवरों में से किसी भी एक को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। जैसे कि हिंसा-आस्रव की भीषणता का बोध कराने के लिए निम्न प्रकार के कर्कश वर्णों और अक्षरों का प्रयोग किया है
_ 'पावो चंडो रुद्दो खुद्दो साहसियो प्रणारिओ णिग्घिणो णिस्संसो महब्भनो पइभो अइभो वीहणो तासणग्रो अणज्जो उन्वेयणयो य णिरवयक्खो णिद्धम्मो णिप्पिवासो णिक्कलुणो णिरयवासगमणनिधणो मोहमहब्भयपयट्टमो. मरणविमणस्सो।'
इसके विपरीत सत्य-संवर का वर्णन करने के लिए ऐसी कोमल-कांत-पदावली का उपयोग किया है, जो हृदयस्पर्शी होने के साथ-साथ मानवमन में नया उल्लास, नया उत्साह और उन्मेष उत्पन्न कर देती है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित गद्यांश पर्याप्त है
.........सच्चवयणं सुद्धं सुचियं सिवं सुजायं सुभासियं सुव्वयं सुकहियं सुदिट्ठ सुपितिट्ठियं सुपइट्ठियजसं सुसंजमियवयणबुइयं सुरवरनरवसभपवरबलवगसुविहियजणबहुमयं परमसाहुधम्मचरणं तवनियमपरिग्गहियं सुगतिपहदेसगं च लोगुत्तमं वयमिणं ।'
भाषा, भाव के अनुरूप है, यत्र-तत्र साहित्यिक अलंकारों का भी उपयोग किया गया है । मुख्य रूप से उपमा और रूपक अलंकारों की बहलता है। फिर भी अन्यान्य अलंकारों का उपयोग भी यथाप्रसंग किया गया है, जिनका ज्ञान प्रासंगिक वर्णनों को पढ़ने से हो जाता है।
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