Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० १ सू०१ अधिकरणीनामकोद्देशकनिरूपणम् ७ मइ असरीरी निकत्वमइ' स वायुकायो भदन्त ! किं सशरीरी निष्क्रामति अशरीरी निष्क्रामति, परिदृश्यमानशरीरात् यदा तस्य वायु कायिकजीवस्य निष्क्रमणं भवति तदा स शरीररहितो निर्गच्छति शरीरसहितो वा निर्गच्छतीति प्रश्नः, भगवा. वाह-एवं जहा खंदए जाव नो असरीरी निक्खमई एवं यथा स्कन्दको यावत् नो अशरीरी निष्क्रामति अत्र स्कन्दक प्रकरणमनुसंधेयम् तथाहि-कदाचित् सशरीरी अपि कदाचित् शरीररहितोऽपि निष्क्रामति शरीरात् औदारिकादिशरीरपक्षे शरीररहितो निष्क्रामति, तथा तैनसकार्मणशरीरापेक्षया सशरीरी निष्कामति । है (यह मूत्र सोपक्रम की अपेक्षा है )। ‘से भंते ! कि ससरीी निक्ख. मइ, असरीरी निक्खमई' हे भदन्त ! परिदृश्यमानशरीर से-गृहीतशरीर से-जब उस वायुकायिक जीव का निष्क्रमण होता है-तब वह क्या शरीर सहित ही वहां से निकलता है ? या शरीर रहित होकर वहां से निकलता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'एवं जहा खंदर जाव नो असरीरी निक्खमई' जैसा कि स्कन्दक के प्रकरण में कहा गया है-वैसा ही कथन यहां पर कर लेना चाहिये-तात्पर्य यह है कि वह कथंचित् सशरीरी भी निकलता है और कथंचित् अशरीरी भी निकलता है- सशरीरी निकलता है इसका तात्पर्य ऐसा है कि तेजस
और कार्मणशरीर अनादिकाल से जीव के साथ सम्बन्धित चले आ रहे हैं और तब तक ये जीव के साथ संबन्धित रहते हैं कि जब तक जीव की मुक्ति नहीं हो जाती है अतः-इसीलिये यहाँ ऐसा कहा गया च्या विना भरता नथी. “से भंते ! किं मसरीरी निक्खमइ, असरीरी निक्ख मह" मावन् ! भात शरीरथी-पा२१-४२६ शरीरथी न्यारे ते वायुय જીવનું નિષ્ક્રમણ થાય છે ત્યારે તે વાયુકાય શું શરીર સાથે જ ત્યાંથી નીકળે છે? કે શરીર વિનાને જ ત્યાંથી નીકળે છે તેના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે छ है “ एवं जहा खंदए जाव नो असरीरी निक्खमइ” २वी रीते २४४४न। પ્રકરણમાં કહેવામાં આવ્યું છે તેવું જ કથન અહિ પણ સમજી લેવું તાત્પર્ય કહેવાનું એ છે કે કથંચિત્ સશરીરી પણ નીકળે છે. અને કથંચિત અશરીરી પણ નીકળે છે. શરીરી નીકળે છે એમ કહેવાનો હેતુ એ છે કે તેજસ અને કાર્મણ શરીર અનાદિ કાળથી જીવની સાથે સંબંધિત ચાલ્યું આવે છે અને ત્યાં સુધી જ સંબંધિત રહે છે. કે જ્યાં સુધી જીવની મુક્તિ ન થઈ હોય એથી અહિયાં એમ કહેવામાં આવ્યું છે કે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૨