Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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मधुर व गेय पद-योजना आचारांग (प्रथम) आद्य गद्य-बहुल माना जाता है, पद्य भाग इसमें बहुत अल्प है। डा. शुकिंग के मतानुसार आचारांग भी पहले पद्य-बहुल रहा होगा, किन्तु अब अनेक पद्यांश खण्ड रूप में ही मिलते हैं। दशवैकालिकनियुक्ति के अनुसार आचारांग गद्यशैली का नहीं, किन्तु चौर्णशैली का आगम है। चौर्ण शैली का मतलब है - जो अर्थबहुल, महार्थ, हेतु-निपात उपसर्ग से गम्भीर, बहुपाद, विरामरहित आदि लक्षणों से युक्त हो। बहुपाद का अर्थ है जिसमें बहुत से 'पद' (पद्य) हों। समवायांग तथा नन्दी सूत्र में भी आचारांग के संखेजा सिलोगा का उल्लेख है। २
आचारांग के सैकड़ों पद, जो भले ही पूर्ण श्लोक न हों, किन्तु उनके उच्चारण में एकलय-बद्धता सी लगती है, छन्द का सा उच्चारण ध्वनित होता है, जो वेद व उपनिषद के सूक्तों की तरह गेयता युक्त है। उदाहरण स्वरूप कुछ सूत्रों का उच्चारण करके पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं।'
इस प्रकार की उद्भुत छन्द-लय-बद्धता जो मन्त्रोच्चारण-सी प्रतीत होती है, सूत्रोच्चारण में विशेष आनन्द की सृष्टि करती है। भाषाशैली की विलक्षणता
विषय-वस्तु तथा रचनाशैली की तरह आचारांगसूत्र (प्रथम) के भाषाप्रयोग भी बड़े लाक्षणिक और अद्भुत हैं । जैसेआमगंधं - (सदोष व अशुद्ध वस्तु) अहोविहार - (संयम) ध्रुववर्ण - (मोक्षस्थान) विस्रोतसिका - (संशयशीलता) वसुमान - (चारित्र-निधि सम्पन्न) महासड्डी - (महान् अभिलाषी)
आचारांग के समान लाक्षणिक शब्द-प्रयोग अन्य आगमों में कम मिलते हैं। छोटे-छोटे सुगठित सूक्त उच्चारण में सहज व मधुर हैं।
इस प्रकार अनेक दृष्टियों से आचारांग सूत्र (प्रथम) अन्य आगमों से विशिष्ट तथा विलक्षण है इस कारण इसके सम्पादन-विवेचन में भी अत्यधिक जागरूकता, सहायक सामग्री का पुनः पुनः अनुशीलन तथा शब्दों का उपयुक्त अर्थ बोध देने में विभिन्न ग्रन्थों का अवलोकन करना पड़ा है।
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देखें दशवैकालिक नियुक्ति १७० तथा १७४ । समवाय ८९ । नन्दी सूत्र ८० आतंकदंसी अहियं ति णच्चा सूत्र ५६ आरम्भसत्ता पकरेंति संगं खणं जाणाहि पंडिते भूतेहिं जाण पडिलेह सातं सव्वेसिं जीवितं पियं णत्थि कालस्स णागमो आसं च छदंच विगिंच धीरे
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अदिस्समाणे कय-विक्कएस सव्यामगंधं परिण्णाय णिरामगंधे परिव्यए संधि विदित्ता इह मच्चिएहिं आरम्भजं दुक्खमिणं ति णच्चा मायी पमायी पुणरेति गभं अप्पमत्तो परिव्यए कम्ममूलं च जं छणं अप्पाणं विप्पसादए
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