Book Title: Adhyatmavichar Jeet Sangraha
Author(s): Jitmuni, 
Publisher: Pannibai Upashray Aradhak Bikaner

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Page 6
________________ अध्यात्मविचार ॥२॥ शब्दार्थ:-हे महाभाग्य (गतमोहाधिकाराणां ) जिस मुनिराजका मोहका अधिकार नष्ट हुए हैं संसारीक जीतसंग्रह पुद्गलिक सुखोंसे ( अध्यात्मानमधिकृत्यया) और अंतरात्मा शुद्ध उपयोग सहित अर्थात् आत्माके आश्रित रहकर JUL॥२॥ (प्रवर्तते क्रियाशुद्धा) जो शुद्धक्रियामें प्रवर्तता है (तध्यात्म जगुर्जिनाः) उसका नामही परमात्मानें अध्यात्म कहा है ८ मू०-ऐन्द्रं तत्परमं ज्योति। रुपाधिरहितं स्तुमः ॥ उदितेस्युर्यदंशेऽपि । सन्निधौ निधयोनव ॥९॥ शब्दार्थ:-(ऐन्द्र) इन्द्रादिक देवोसें पूजित (तत्) वह (परमं ज्योतिः) परम उत्कृष्ट एक आत्मज्योति है वह ( उपाधिरहितं ) उपाधिसे रहित हैं ऐसें परमज्योतिमय शुद्ध आत्मज्योतिको ( स्तुमः) हमस्तुति करते हैं | ( वदंशः) जिसज्योतिके अंशमात्रके ( उदिते) उदय होनेसे (अपि सन्निधौ ) उसके सामने अर्थात् उसके आगे | (नवनिधयः) नवनिधि आपसें आप प्रगट हो जाती है ॥ ९॥ भावार्थः-इन्द्र चद्र सुर असुर और गणधरादिक महापुरुषोंसे पूजित वह परम उत्कृट आत्मज्योति है फिर सर्वप्रकारकी उपाधियोसे रहितस्वरूप है जिस परम प्रकाशमय आत्मज्योतिकेसमान तीन लोकमें कोईभी पदार्थ प्रकाशवान नहीं हैं ऐसी परम ज्योतिमय शुद्ध आत्मज्योतिकी हम स्तुति उपासना करते हैं क्योंकि जिस आत्मज्योतिके अंशमात्रके उदे होनेपर अर्थात् एकअंशमात्रके प्रकाशहोनेपर नवनिधि अष्टसिद्धि और नानाप्रकारकी लब्धियों आपसे आपही सनत्कुमारचक्रीकी तरह प्रगट होजाती हैं ।। म०-प्रभाचंद्रार्कभादीनां । मित्रक्षेत्रप्रकाशिका | आत्मनस्तुपरंज्योति-र्लोकालोकप्रकाशकम् ॥१०॥ शब्दार्थः-(चंद्रार्कभादीनाम् ) जो चंद्रसूर्यादिकग्रहोंकी (प्रभा) कान्ति याने प्रकाश है वहतो (मितक्षेत्र For Personal & Preise Only

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