Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 03
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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या ब्रह्म आदि में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। उसका तो अपना एक धर्म होता है और वह है - आत्म-धर्म (शुद्धात्म-धर्म) । यही बात विश्वपूज्य पर पूर्णरूपेण चरितार्थ होती है । सामान्यतया जैन परम्परा में परम तत्त्व की उपासना तीर्थंकरों के रूप में की जाती रही है; किन्तु विश्वपूज्य ने परमतत्त्व की उपासना तीर्थंकरों की स्तुति के अतिरिक्त शंकर, शंभु, भूतेश्वर, महादेव, जगकर्ता, स्वयंभू, पुरूषोत्तम, अच्युत, अचल, ब्रह्म-विष्णु-गिरीश इत्यादि के रूप में भी की है। उन्होंने निर्भीक रूप से उद्घोषणा की है - "शंकर शंभु भूतेश्वरो ललना, मही माहें हो वली किस्यो महादेव, जिनवर ए जयो ललना । जगकर्ता जिनेश्वरो ललना, स्वयंभू हो सहु सुर करे सेव, जिनवर ए जयो ललना ॥ वेद ध्वनि वनवासी ललना, चौमुखे हो चारे वेद सुचंग, जिन. । वाणी अनक्षरी दिलवसी ललना, ब्रह्माण्डे बीजो ब्रह्म विभंग, जि.॥ पुरुषोत्तम परमातमा ललना, गोविन्द हो गिख्वो गुणवंत, जि. । अच्युत अचल छे ओपमा ललना, विष्णु हो कुण अवर कहंत, जि.॥ नाभेय रिषभ जिणंदजी ललना, निश्चय थी हो देख्यो देव दमीश। एहिज सूरिशजेन्द्र जी ललना, तेहिज हो ब्रह्मा विष्णु गिरीश, जि.॥"" ___ वास्तव में, विश्वपूज्य ने परमात्मा के लोक प्रसिद्ध नामों का निर्देश कर समन्वय-दृष्टि से परमात्म-स्वरूप को प्रकट किया है ।
इसप्रकार कहा जा सकता है कि विश्वपूज्य ने धर्मान्धता, संकीर्णता, असहिष्णुता एवं कूपमण्डूकता से मानव-समाज को ऊपर उठाकर एकता का अमृतपान कराया। इससे उनके समय की राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थिति का भी परिचय मिलता है। ___'अभिधान राजेन्द्र कोष' कथाओं का सुधासिन्धु है । कथाओं में जीवन को सुसंस्कृत, सभ्य एवं मानवीय गुण-सम्पदा से विभूषित करने का सरस शैली में अभिलेखन हुआ है। कथाएँ इक्षुरस के समान मधुर, सरस और सहज शैली में आलेखित हैं । शैली में प्रवाह हैं, प्राकृत और संस्कृत शब्दों को हीरक कणियों के समान तराश कर 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 पृ. 2
अभिधान राजेन्द्रं कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-3.53