Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 03
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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श्रमण अनेक भवों के संचित अनन्त कर्मों को क्षय कर देता है ।
89. स्वयं कृत दुःख
किं भया पाणा ?....
दुक्ख भया पाणा.... दुक्खे केण कडे ? जीवेणं कडे पमादेण ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 526 ]
स्थानांग 3/3/2/174
प्राणी किससे भय पाते हैं ? दुःख से । दुःख किसने किया है ?
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स्वयं आत्माने, अपनी ही भूल से ।
90. बाह्य क्रिया विरोधी
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बाह्य भावं पुरस्कृत्य ये क्रिया व्यवहारतः । वदने कवलक्षेपं, विना ते तृप्तिकाङ्क्षिणः ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 551] ज्ञानसार 9/4
जो दर्शन-पूजन, सेवा, गुरु-भक्ति, तपश्चरण आदि क्रियाओं को बाह्य भाव बताकर व्यावहारिक क्रिया का निषेध करते हैं, वे मुँह में कौर डाले बिना ही भूख की तृप्ति करना चाहते हैं ।
91. क्रिया की अपेक्षा
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स्वानुकूलां क्रियां काले, ज्ञानपूर्णोऽप्यपेक्षते । प्रदीपः स्वप्रकाशोऽपि तैल पूर्त्यादिकं यथा ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 551] ज्ञानसार 9/3
स्वयं प्रकाशी दीपक भी तेल - पूर्ति और बत्ती आदि क्रिया की अपेक्षा रखते हैं, वैसे ही पूर्ण ज्ञानी को भी स्व अनुकूल क्रिया के योग्य अवसर में क्रिया करनी चाहिए ।
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-3 • 78