Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 03
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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संसारी जीव विविध प्रकार के कर्मों का अर्जन कर विविध नाम एवं गोत्र वाली जातियों में तथा संसार में भिन्न भिन्न स्वरूप का स्पर्श कर सब जगह उत्पन्न हो जाता है। 243. मनुष्य भव-प्राप्ति जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 1052]
- उत्तराध्ययन 30 कर्मक्षय रूप शुद्धि को प्राप्त हुए जीव मनुष्य-जन्म प्राप्त करते हैं। 244. कर्म-योनि
एगया खत्तिओ होइ, तओ चंडाल बोक्कसो । तओ कीड पयं गोय, तओ कुंथूपिवीलिया ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 1052]
- उत्तराध्ययन 3/4 यह जीव कभी क्षत्रिय, कभी चांडाल, कभी वर्णसंकर जाति का होता है। तत्पश्चात् कभी पतंग, कभी कीट, किसी समय कुंथु और कभी चींटी भी बनता है। 245. कृतकर्मभोग
एगयादेव लोगेसु, नरएसुवि एगया । एगया आसुरं कायं, आहा कम्मेहिं गच्छई ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 1052]
- उत्तराध्ययन 3/3 यह जीवन अपने कृत कर्मों के अनुसार कभी देवलोक में, कभी नरक में तो कभी असुरों के निकाय में उत्पन्न होता है। 246. कर्मवेदना कम्मसंगेहि संमूढा, दुक्खिया बहुवेयणा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 1052]
- उत्तराध्ययन 3/6 जीव कर्मों के संग से मूढ बनकर अत्यन्त वेदना तथा दु:ख पाते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-3 • 116