Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 03
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 899]
एवं [भाग 4 पृ. 2731]
- धर्मबिन्दु 27147 सत्पुरुषों की प्रशंसा करना यह धर्म बीज का आरोपण है । धर्मचिन्तन आदि उसके अंकुर समान है और निवृत्ति या मोक्ष उसकी फलसिद्धि के समान है। 176. गीतार्थवचनः अमृतरसायण
गीअत्थस्स वयणेणं, विसं हलाहलं पिबे । अविकप्पो अ भक्खिज्जा, तक्खणे जं समुद्दवे ॥ परमत्थओ विसं नो तं, अमयरसायणं खुतं । निव्विग्धं जं न तं मारे, मओडिव अमयस्समो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 902]
- गच्छाचारपयन्ना 2/44-45 ___ गीतार्थ पुरुष के वचन से बुद्धिमान् व्यक्ति तुरन्त मृत्यु के घाट उतारनेवाला हलाहल तालपुट विष भी नि:शंक होकर पी लेता है और वैसा पदार्थ भी खा लेता है, क्योंकि परमार्थत: तो वह जहर, जहर नहीं, परन्तु निर्विघ्नकारी अमृततुल्य रसायन ही होता है । कारण कि वह विषभक्षण करनेवाले को मारता नहीं है और कदाचित् मर जाय तो भी वह अमर ही माना जाता है। 177. साधक-आचरण
णय किंचि अणुन्नायं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहि। तित्थगराणं आणा, कज्जे सच्चेण होअव्वं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 903] . एवं [भाग 7 पृ. 947]
- निशीथ भाष्य 5248
- बृहदावश्यक भाष्य 3330 जिनेश्वरदेव ने न किसी कार्य की एकान्त अनुज्ञा दी है और न एकान्त निषेध ही किया है। उनकी आज्ञा यही है कि साधक जो भी करे वह सच्चाई-प्रामाणिकता के साथ करे ।
___ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-3 • 99