Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 03
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 399]
- दशवैकालिक 8/39 अनिग्रहीत क्रोध और मान तथा प्रवर्द्धमान माया और लोभ ये चारों संक्लिष्ट कषाय पुन: पुन: जन्म-मरणरूप संसार वृक्ष की जड़ों को सींचते रहते हैं अर्थात् पुनर्जन्म की जड़ें सींचते हैं। 70. उपेक्षा मत करो
अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च । न हु भे वीससियव्वं, थोवंपि हु तं बहुं होई ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 400]
- आवश्यक नियुक्ति 120 ऋणा, व्रण (घाव), अग्नि और कषाय – यदि इनका थोड़ा-सा अंश भी है, तो उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। ये अल्प भी समय पर बहुत विस्तृत हो जाते हैं। 71. वीतरागता कसाय पच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 401]
उत्तराध्ययन 2938 कषाय-प्रत्याख्यान (त्याग) से जीव वीतराग भाव को प्राप्त होता है। (कषाय - त्याग से वीतरागता प्राप्त होती है ।) 72. वीतराग-समभावी - वीयराग भाव पडिवन्ने वियणं जीवे समसुह दुक्खे भवइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 401]
- उत्तराध्ययन 29/38 वीतराग भाव को प्राप्त हुआ जीव सुख-दु:ख में समभावी हो जाता है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-3 • 73