________________ 18 यह समय अलग ही है, और मैंने अपने पाट पर शिष्य श्रीधीरविजय' को धरणेन्द्रसूरि नामाङ्कित करके बैठाया तो है किन्तु अभी यह अज्ञ है, याने व्यवहार से परिचित नहीं है। इसलिये तुमको मैं आदेश करता हूँ कि इसको पढ़ाकर साक्षर बनाना और गच्छ की मर्यादा सिखाना"। इस शुभ आज्ञा को सुनकर पं० रत्नविजयजी' ने साञ्जलिबन्ध होकर तहत्ति' कहा। फिर श्रीपूज्यजी महाराज ने विजयधरणेन्द्रसूरिजी से कहा कि-'तुम रत्नविजय पन्यास के पास पढ़ना और यह जिस मर्यादा से चलने को कहें उसी तरह चलना'। धरणेन्द्रसूरिजी ने भी इस आज्ञा को शिरोधार्य माना। महाराज श्रीदेवेन्द्रसूरिजी ने तो चारों आहार का त्याग कर शहर 'राधनपुर' में अनशन किया और समाधिपूर्वक कालमहीने में काल किया। पीछे से पट्टाधीश श्री धरणेन्द्रसूरिजी' ने 'श्रीरत्नविजयजी' पन्यास को बुलाने के लिये एक रुक्का लिखा कि पेस्तर 'श्रीखन्तिविजयजी' ने खेवटकर उदयपुर राणाजी के पास से 'श्रीदेवेन्द्रसूरिजी महाराज को पालखी प्रमुख शिरोपाव बक्साया था, उसी प्रकार तुम को भी उचित है कि सिद्धविजयजी' से बन्द हुआ जोधपुर और बीकानेर नरेशों की तरफ से छड़ी दुशाला प्रमुख शिरोपाव को खेवटकर फिर शुरू कराओ, इस रुक्के को वाँचकर 'श्री प्रमोदविजयजी महाराज ने कहा कि "सूचिप्रवेशे मुशलप्रवेशः" यह लोकोक्ति बहुत सत्य है, क्यों कि 'श्री हीरविजय सूरिजी महाराज की उपदेशमय वचनों को सुनकर दिल्लीपति बादशाह अकब्बर अत्यन्त हर्षित हुआ और कहने लगा कि"हे प्रभो ! आप पुत्र, कलत्र, धन, स्वजनादि में तो ममत्व रहित हैं इसलिये आपको सोना चाँदी देना तो ठीक नहीं? परन्तु मेरे मकान में जैन मजहब की प्राचीन 2 बहुत पुस्तकें हैं सो आप लीजिये और मुझे कृतार्थ करिये"। इस प्रकार बादशाह का बहुत आग्रह देख हीरविजय सूरिजी' ने उन तमाम पुस्तकों को आगरा नगर के ज्ञानभण्डार में स्थापन किया। फिर आडम्बर सहित उपाश्रय में आकर बादशाह के साथ अनेक धर्मगोष्ठी की; उससे प्रसन्न हो छत्र, चामर, पालखी वगैरह बहु मानार्थ 'श्री हीरविजय सूरिजी' के अगाड़ी नित्य चलाने की आज्ञा अपने नोकरों को दी। तब हीरविजय सूरिजी ने कहा कि हम लोग जंजाल से रहित हैं इससे हमारे आगे यह तूफान उचित नहीं है। बादशाह ने विनय पूर्वक कहा कि- 'हे प्रभो ! आप तो निस्पृह हैं परन्तु मेरी भक्ति है सो आपके निस्पृहपन में कुछ दोष लगने का संभव नहीं है। उस समय बादशाह का अत्यन्त आग्रह देख श्रीसंघ ने विनती की कि-स्वामी ! यह तो जिनशासन की शोभा और बादशाह की भक्ति है इसलिये आपके आगे चलने में कुछ अटकाव नहीं है। गुरुजी ने भी द्रव्य, क्षेत्र,काल,भाव की अपेक्षा विचार मौन धारण कर लिया। बस उसी दिन से श्री पूज्यों के आगे शोभातरीके पालखी छड़ी प्रमुख चलना शुरू हुआ। श्री विजयरत्न सूरिजी महाराज तक तो कोई आचार्य पालखी में न बैठे, परन्तु 'लघुक्षमासूरिजी' वृद्धावस्था होने से अपने शिथिलाचारी साधुओं की प्रेरणा होने पर बैठने लगे। इतनी रीति कायम रखी कि गाँव में आते समय पालखी से उतर जाते थे, तदनन्तर 'दयासूरिजी' तो गाँव नगर में भी बैठने लगे। इस तरह क्रमशः धीरे२ शिथिलाचार की प्रवृत्ति चलते चलते अत्यन्त शिथिल हो गये क्योंकि पेस्तर तो कोई राजा वगैरह प्रसन्न हो ग्राम नगर क्षेत्रादि शिरोपाव देता तो उसको स्वीकार न कर उसके राज्य में जीववधादि हिंसा को छुड़ाकर आचार्य धर्म की प्रवृत्ति में वधारा करते थे, और अब तो श्रीपूज्य' नाम धराकर खुद खेक्ट कराके शिरोपाव लेने की इच्छा करते हैं, यह सब दुःषम काल में शिथिलाचारादिप्रवृत्ति का प्रभाव जानना चाहिये। अत एव हे शिष्य ! "श्रीपूज्यजी ने जो कुछ लिखा है उस प्रमाणे उद्यम करना चाहिये, क्योंकि बहुत दिन से अपना इनके साथ संबन्ध चला आता है उसको एक दम तोड़ना ठीक नहीं है"। तब अपने गुरुवर्य की आज्ञानुसार पन्यास रत्नविजयजी भी नवीन श्रीपूज्यजी को दत्तचित्त होकर पढ़ाना प्रारम्भ किया और गच्छाधीश की मर्यादाऽनुसार बर्ताव कराना शुरू किया। श्री पूज्यजी ने अपने गुरुवर्य की आज्ञानुसार पन्यास श्री रत्नविजयजी को विद्यागुरु समझकर आदर, सत्कार, विनय आदि करना शुरू किया। पन्यासजी ने भी श्रीपूज्य आदि सोलह व्यक्तियों