________________ 38 - योगद्वार, वेदद्वार, कषायद्वार, लेश्याद्वार सम्यग्दृष्टिद्वार, ज्ञानद्वार दर्शनद्वार, संयमद्वार, उपयोगद्वार, आहारद्वार, भाषकाभाषकद्वार, संज्ञिद्वार, भवस्थितिकद्वार के भेद से जीवों की कायस्थिति, और उदकगर्भादिकों की कायस्थिति इत्यादि 20 विषय हैं। 12- 'काल' शब्द पर कालशब्द की व्युत्पत्ति, काल की सिद्धि, काल का लक्षण, काल के भेद, दिगम्बर की प्रक्रिया से काल का निरूपण, और उसका खण्डन, काल का ज्ञान मनुष्य क्षेत्र में ही होता है इसका निरूपण, काल के संख्येय, असंख्येय और अनन्त भेद से तीन भेद तीर्थकर और गणधरों से कहे हुए हैं, स्निग्ध और रूक्ष भेद से काल के दो भेद, स्निग्ध और रूक्ष के तीन तीन भेद इत्यादि विषय निर्दिष्ट हैं। 13- "किइकम्म' शब्द पर कृतिकर्म में साधुओं की अपेक्षा से साध्वियों का विशेष, यथोचित वन्दना न करने में दोष,कृतिकर्म में द्रव्य और भाव के जनाने के लिये दृष्टान्त, कृतिकर्म करने के योग्य साधुओं का निरूपण, तथा वन्दन करने के योग्य साधुओं का निरूपण, द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव से भेद, आचरणा का लक्षण, और पर्याय ज्येष्ठों से आचार्य की वन्दिना का विचार, दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण के मध्य में स्तुति मङ्गल अवश्य करना चाहिए, कृतिकर्म किसको करना चाहिए और किसको नहीं इसका विवेचन, पार्श्वस्थादि कों की वन्दना पर विचार, सुसाधु के वन्दना पर गुण का विचार, कृतिकर्म करने में उचितानुचित का निरूपण, कृतिकर्म को कब करना और कब नहीं करना, और कितनी वार कृतिकर्म करना इसका निरूपण, नियत वन्दनस्थान की संख्या का कथन, कृतिकर्म के स्वरूप का निरूपण इत्यादि 21 विषयों का विवेचन है। 14- "किरिया' शब्द पर क्रिया का स्वरूप, क्रिया का निक्षेप, क्रिया के भेद, स्पृष्टास्पृष्टत्व से प्राणातिपातक्रिया का निरूपण, क्रिया का सक्रियत्व और अक्रियत्व, मृषावादादि का आश्रयण करके क्रियाकरने का प्रकार, अष्टादश स्थानों के अधिकार स एकत्व और पृथक्त्व के द्वारा कर्मबन्ध का निरूपण, ज्ञानावरणीयादि कर्म को बाँधता हुवा जीव कितनी क्रियाओं से समाप्त करता है, मृगयादि में उद्यत पुरुष की क्रिया का निरूपण, क्रिया से जन्य कर्म और उसकी वेदना के अधिकार से क्रिया का निरूपण, श्रमणोपासक की क्रिया का कथन, अनायुक्त में जाते हुए अनगार की क्रिया का निरूपण इत्यादि 18 विषय आए हुए हैं। 15- 'कुसील' शब्द पर कुशील किसको कहना, और उनके भेद, कुशील के चरित्र, कुशीलों के निरूपणानन्तर सुशीलों का निरूपण, पार्श्वस्थादिकों का संसर्ग नहीं करना, और उनके संसर्ग में दोष इत्यादि विषय हैं। 16- 'केवलणाण' शब्द पर केवलज्ञान शब्द का अर्थ, केवलज्ञान की सिद्धि, इसका साद्यपर्यवसितत्व, केवलज्ञान के भेद, सिद्ध का स्वरूप, किस प्रकार का केवलज्ञान होता है इसका निरूपण, स्त्रीकथा भक्तकथा देशकथा और राजकथा करनेवाले के लिये केवल ज्ञान और केवल दर्शन का प्रतिबन्ध इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं / 17- 'केवलिपण्णत्त' शब्द पर केवली से कहे हुए धर्म का निरूपण, केवली के भेद, पहिले केवली हो कर ही सिद्धि को प्राप्त होता है, केवली के आहार पर दिगम्बर की विप्रतिपत्ति आदि विषय निरूपित हैं। 18- 'खओवसमिय' शब्द क्षयोपशमिक के भेद तथा औपशमिक से इसका भेद, और उसके अठारह भेद इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं / १६-'खरयर' शब्द पर खरतर गच्छ का संक्षिप्त विवरण; तथा 'खणियवाई' शब्द पर बौद्धों के मत का संक्षिप्त निरूपण, और खण्डन आदि देखने के लायक है। 20- 'खेत्त' शब्द पर क्षेत्र का निरूपण, क्षेत्र के तीन भेद, क्षेत्र के गुण, क्षेत्र का आभवनव्यवहार आदि कई विषय निरूपित हैं / 29- 'गई' शब्द पर स्पृशद्गति और अस्पृशद्गति से गति के दो भेद, प्रकारान्तर से मी दो भेद, गति शब्द की व्युत्पत्ति, नारक तिर्यग् मनुष्य देव के भेद से गति के चार भेद, प्रकारान्तर से पाँच भेद, अथवा आठ भेद, नारकादिकों की शीघ्रगति आदि विषय दिये हुए हैं। 22- 'गच्छ' शब्द पर गच्छविधि, सदाचाररूपी गच्छ का लक्षण, गच्छ का अगच्छत्व, गच्छ में वसने से विशेष निर्जरा होती है इसका निरूपण, शिष्य तथा गच्छ का स्वरूप, आर्यिकाओं के साथ संवाद का निषेध, क्रयविक्रयकारी गच्छ का निषेध, सुगच्छ में बसना चाहिए,