________________ 3- तृतीय भाग के 500 पृष्ठ में 'कालियसुय' शब्द पर कालिकश्रुत (एकादशाङ्गी) के व्यवच्छेद की चर्चा है कि सुविधि जिन के तीर्थ का सुविधि और शीतल जिन के मध्य काल में व्यवच्छेद हो गया, और व्यवच्छेद का काल पल्योपमचतुर्थ-भाग माना गया है। इसी तरह और भी षट् (छ:) जिनों में समझना, किन्तु व्यवच्छेद काल तो सातो जिनों के मध्य में इस तरह समझना- "चउभागो 1 चउभागो 2, तिण्णि य चउभाग 3 पलियमेगं च 4 / तिण्णेव य चउभागा 5, चउत्थभागो य 6 चउभागो 7 / 1 / / इति / परन्तु दृष्टिवाद अङ्ग का व्यवच्छेद तो सभी जिनान्तरों में था, और उसकी अवधि भी नहीं की हुई है। 4- यद्यपि मीमांसादर्शन के तन्त्रवार्तिककार कुमारिल भट्ट ने इस प्राकृतभाषा (अर्धमागधी) पर बहुत कुछ आक्षेप किया है, किन्तु वह उसकी अदूरदर्शिता है और व्यर्थ का ही कटाक्ष हैं, क्योंकि इस कोश के 'पागड' शब्द पर विशेषावश्यक भाष्य पर टीकाकार का लेख है कि- 'ननु जैनं प्रवचनं सर्व प्राकृतनिबद्धमिति दुःश्रद्धेयम् / मैवं शङ्क्यम्म्बालस्त्रीमूढमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाक्षिणम् / अनुग्रहाय तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः' |1|| और यह विचारसह भी है क्योंकि जो भाषा 'राष्ट्रभाषा' या 'मातृभाषा' के उपयोग से लोगों को उपदेश मिलता है उससे शिक्षित-अशिक्षित पठितापठित स्त्री पुरुष सभी का विशेष उपकार होता है। 5- 'वागरण' शब्द पर आ०म०द्वि०कार लिखते हैं कि भगवान् ऋषभ देव ने शक्रेन्द्र से जो व्याकरण प्रथम कहा था वही ऐन्द्र व्याकरण के नाम से प्रख्यात हुआ / तथा कल्पसुबोधिका में लिखा है कि-२० व्याकरण हैं, अर्थात्- 1 ऐन्द्र, 2 जैनेन्द्र, 3 सिद्धहेम, 4 चान्द्र, 5 पाणिनीय, 6 सारस्वत 7 शाकटायन, 6 वामन, 6 विश्रान्त, 10 बुद्धिसागर, 11 सरस्वतीकण्ठाभरण, 12 विद्याधर, 13 कलापक, 14 भीमसेन, 15 शैव, 16 गौड, 17 नन्दि, 16 जयोत्पल, 16 मुष्टि व्याकरण, और 20 वाँ जयदेव नाम से प्रसिद्ध है। इसीलिए आवश्यकवृत्ति के दूसरे अध्ययन में लिखा है कि जब ऐन्द्रादि आठ व्याकरण हैं तब केवल पाणिनीय व्याकरण पर ही आग्रह नहीं करना चाहिए / यद्यपि प्राकृतकल्पलतिका, प्राकृतप्रकाश, हेमचन्द्र, प्राकृत षड्भाषाचन्द्रिका, प्राकृतमञ्जरी आदि कई प्राकृत के व्याकरण हैं परन्तु जैसा सिद्धहेम का अष्टमाध्याय उत्तम प्राकृत व्याकरण बना है वैसा प्रायः सकलविषयसंग्राहक दूसरा प्राकृत का व्याकरण नहीं है। तथापि उसके गद्यमय होने से लोगों को कठस्थ करने में कठिनता पड़ती देखकर इस कोश के कर्ता हमारे गुरुवर्य पूर्वोक्त सूरीजी महाराज ने अनुग्रह करके सिद्धहेम सूत्रों पर श्लोकबद्ध विवरण रचकर सरल कर दिया, जो कि कोश के प्रथम भाग के परिशिष्टों में संकलित कर दिया गया है। क्योंकि जिस भाषा का ज्ञान अपेक्षित होता है उसके व्याकरण की बड़ी आवश्यकता होती है, अर्थात् बिना व्याकरण के किसी भाषा का पूरा पूरा ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए पहले उसको एक बार खूब मनन करके पश्चात् कोश को देखने से विशेष आनन्द आवेगा। 6- यद्यपि महानिशीथ सूत्र में टीका या चूर्णि नहीं पायी जाती, तथापि हमारी पुस्तक में चतुर्थाध्ययन की समाप्ति में लिखा है कि"अत्र चतुर्थाध्ययने बहवः सैद्धान्तिकाः,केचिदालापकान्न सम्यक् श्रद्दधत्येवं तैरश्रद्दधानरस्माकमपि न सम्यक् श्रद्दधानमित्याह हरिभद्रसूरिः, न पुनः सर्वमेवेदं चतुर्थाध्ययनमन्यानि वाऽध्ययनानि / अस्यैव कतिपयैः परिमितैरा-लापकै रश्रद्दधानमित्यर्थः / यतः स्थानसमवायजीवाभिगमप्रज्ञापनादिषु न कथञ्चिदिदमाचक्षे, यथा प्रतिसंतापस्थलमस्ति-तद्गुहावासिनस्तु मनुजास्तेषु च परमाधार्मिकाणां पुनः पुनः सप्ताष्टवारान यावदुपपत्तेस्तेषां च तैर्दारुणैर्वजशिलाघरट्टसंपुटैर्गि-लितानां परिपीड्यमानानामपि संवत्सरं यावत् प्राणव्यापत्तिर्न भवतीति / वृद्धवादस्तु पुनर्यथा-तावदिदमार्षसूत्रं, विकृतिर्न तावदत्र प्रविष्टा,प्रभूताश्चात्र श्रुतस्कन्धे अर्थाः, शुद्धातिशयेन सातिशयानि गणधरोक्तानि चेह वचनानि, तदेवं स्थिते न किञ्चिदाशङ्कनीयम् // " इसके बाद फिर 'एवं कुशीलसंसग्गिं सव्वोपाएहिं पयहियं' इत्यादि