________________ 16 बारह वर्ष की अवस्था से कुछ ऊपर होने पर अपने पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई 'माणिकचंदजी' के साथ 'श्रीकेसरियाजी' महातीर्थ की यात्रा की, और रास्ते में 'अम्बर' शहर-निवासी सेठ 'सौभाग्यमलजी' की पुत्री के डाकिनी का दोष निवारण किया और भीलों के संकट से सारे कुटुम्ब को बचाया था। इसी सबब से इस उपकार के प्रत्युपकार में 'सौभाग्यमलजी ने अपनी सुरुपा पुत्री 'रमादेवी' का सगपन (सगाई) आप (रत्नराज) के साथ संयोजन करने का मानसिक विचार किया था। परन्तु यहाँ संबन्धियों का संमेलन न होने के सबब से सेठजी अपने कुटुम्ब सहित घर की तरफ रवाना हो गये। इधर 'माणिकचंदजी' भी अपने छोटे भाई को यात्रा कराकर 'गोडवाड' की पञ्चतीर्थो की यात्रा करते हुए अपने घर को चले आये। कुछ दिन घर में रहकर फिर दोनों भाई व्यापारोन्नति के निमित्त अपने पिता का शुभाशीर्वाद ले बङ्गाल की ओर रवाना हुए। क्रमशः पन्थ प्रसार करते हुए दोनों भाई 'कलकत्ते' शहर में आए और सर्राफी बाजार में आदतिया के यहाँ उतरे। इस शहर में दस पन्द्रह दिन ठहर कर जहाजों में धान (गल्ला) भर, शुभ मुहूर्त में 'सिंहलद्वीप' (सिलोन) की ओर रवाना हुए। मार्ग में अनेक उपद्रवों को सहन करते हुए 'सिंहलद्वीप' में पहुँचे / यहाँ से द्रव्योपार्जन करके कुछ दिनों के बाद कलकत्ता' आदि शहरों को देखते हुए अपने घर को आये। तदनन्तर माता-पिता की वृद्धावस्था समझ कर उनकी सेवा में तत्पर हो वहाँ ही रहना स्थिर किया। काल की प्रबल गति अनिवार्य है, यह मनुष्यों को दुःखित किये बिना नहीं रहती। अकस्मात् ऐसा समय आया कि-माता और पिता के अन्तिम दिन आ पहुँचे और दोनों भाइयों को अत्यन्त शोक होने का अवसर आ गया, परन्तु किञ्चित् धैर्य पकड़ कर माता पिता की अन्तिम भक्ति करने में कटिबद्ध हो, उनकी सुन्दर शिक्षाएँ सावधानी से ग्रहण की, और रातदिन उनके निकट ही रहना शुरू किया, यों करते काल समय आने पर जब माता पिता का देहान्त हो गया, तब दोनों भाई संसारी कृत्य कर विशेष शोक के वशीभूत न हो धर्मध्यान में निमग्न हुए। / तब से आपकी सुरम्य चित्तवृत्ति विशेषरूप से निरन्तर वैराग्य की ओर ही आकर्षित रहने लगी, इसी से आप विषयवासनाओं से रहित होकर परमार्थ सिद्ध करने में और उच्चतम मुनिराजों के दर्शन प्राप्त करने में प्रोत्साहित रहते थे। एक समय श्रीकल्याणसूरिजी' महाराज के शिष्य यतिवर्य श्री प्रमोदविजयजी महाराज विचरते विचरते शहर 'भरतपुर' में पधारे और आज्ञा लेकर उपाश्रय में ठहरे। सब लोग आपके पास व्याख्यान सुनने आने लगे। इधर 'रत्नराज' भी देव दर्शन कर उपाश्रय में व्याख्यान सुनने के लिये आये। इस सुयोग्य सभा में 'श्रीप्रमोदविजयजी' महाराज ने संसार की क्षणिक प्रीति के स्वरूप को बहुत विवेचन के साथ दिखाया कि "अनित्यानि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः" अर्थात् इस संसार में शरीरादि संयोग सब क्षणिक हैं, याने देखने में तो सुन्दर लगते हैं परन्तु अन्त में अत्यन्त दुःखदायक होते हैं और धन दौलत भी विनाशवान् है इसके ऊपर मोह रखना केवल अज्ञान ही है, क्यों कि "दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणां, बालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनुस्त्रीपयः पानमिश्रम् / / तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्याः ! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित्?" ||1||