________________ 27 एक तरफ रहा, दूसरी बात यह भी है कि जिस भाषा में जैनदर्शन बना है, वह भाषा वही है जिसने प्राचीन समय में मातृभाषा से राष्ट्रभाषा तक भारतभूमि में स्थान पाया था, और जिसका सर्वज्ञों से और गणधरों से बड़ा आदर किया गया, उसी भाषा का प्रचार इस समय बिलकुल नहीं है और जो नाटकों में जहाँ कहीं दिखाई देता है उसको भी उसके नीचे दी हुई छाया से ही लोग समझ लेते हैं, और यदि किसी ने उसका कुछ अभ्यास भी कर लिया तो उससे जैन धर्म के मूलसूत्रों का अथवा नियूंक्तिगाथाओं का अर्थ समझ में नहीं आ सकता , क्योंकि भगवान् तीर्थङ्कर ने, तथा गणधरों ने अर्धमागधी भाषा में उन सूत्रों का प्रस्ताव किया है, जो कि सामान्य प्राकृत भाषा से कुछ विलक्षण है। पूर्व समय में तो लोग परिश्रम करके आचार्यों के मुख से सूत्रपाठ और उसका अर्थ सुनकर कण्ठस्थ करते थे तभी वे कृतकार्य भी होते थे (इसका संक्षिप्त विवरण पहिले भाग के 'अहालंदिय' शब्द पर देखो) किन्तु आजकल ऐसी परिपाटी के प्रायः नष्ट हो जाने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अत्यन्त हास हो गया है। इस दशा को देखकर हमारे गुरुवर्य श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय कलिकालसर्वज्ञकल्प भट्टारक 1008 श्रीमद्वि-जयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज को बड़ी चिन्ता उपस्थित हुई कि दिनों दिन जैन धर्म के शास्त्रों को हास होता जाता है, इसीलिए बहुत से लोग उत्सूत्र काम भी करने लग गए हैं और अपने धर्मग्रन्थों से बिल्कुल बेखबर से हो गए हैं। ऐसी दशा में क्या करना चाहिये? क्योंकि संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है जिसने अपने धर्म की यथाशक्य उन्नति की, अन्यथा- 'असंपादयतः किञ्च-दर्थं जातिक्रियागुणैः / यदृच्छाशब्दवत् पुंसः, संज्ञायै जन्म केवलम्' की तरह हो जाता है। ऐसी चिन्ता हृदय में बहुत दिन रही, किन्तु एक दिन रात्रि में ऐसा विचार आया कि- एक ऐसा ग्रन्थ नवीन रूढि से बनाना चाहिये जिसमें जैनागम की मागधी भाषा के शब्दों को अकारादि क्रम से रखकर संस्कृत में उनका अनुवाद, लिङ्ग, व्युत्पत्ति, और अर्थ लिखकर फिर उस शब्द पर जो पाठ मूलमूत्र का आया है उसको लिखना और टीका यदि उसकी प्राचीन मिले तो उसको देकर स्पष्ट करना और यदि ग्रन्थान्तर में भी वही विषय आया हो तो उसकी सूचना (भलावन) दे देना चाहिए। इससे प्रायः अपने मनोऽनुकूल संसार का उपकार होगा। तदनन्तर प्रातःकाल होते ही पूर्वोक्त सूरी जी महाराज ने अपनी नित्य क्रिया को करके इस कार्य का भार उठाया, और दत्तचित्त होरक बाईस वर्ष पर्यन्त घोर परिश्रम करने पर इस कार्य में सफल हुए, अर्थात् 'अभिधानराजेन्द्र' नाम का कोष मागधीभाषा में रचकर चार भागों में विभक्त कर दिया। इसके बाद कितने ही श्रावकों ने और शिष्यों में प्राथर्ना की कि यदि यह ग्रन्थ भी और ग्रन्थों की तरह भण्डार में ही पड़ा रह जाएगा तो कितने मनुष्य इससे लाभ उठा सकेंगे? इसलिए अनेक देश देशान्तरों में जिस तरह इसका प्रचार हो वह काम होना चाहिये। इस पर सूरीजी महाराज ने उत्तर दिया कि मेरा कर्तव्य तो पूर्ण हो गया अब जिसमें समस्त संसार का उपकार हो वैसा तुम लोगों को करना चाहिए, मैं इस विषय में तटस्थ हूँ। तदनन्तर श्रीसङ्घ ने इस ग्रन्थ के विशेष प्रचार होने के लिए छपवाना ही निश्चय किया / तब इस ग्रन्थ के शोधन का भार सूरीजी महाराज के विनीत शिष्य मुनि श्री दीपविजयजी और मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने ग्रहण किया, जो इस कार्य के पूर्ण अभिज्ञ हैं / जैनधर्म का ऐसा कोई भी साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका-संबन्धी विषय नहीं है जो इस कोश में आया न हो, किन्तु साथ ही साथ विशेषता यह है कि मागधीभाषा के अनुक्रम से शब्दों पर सब विषय रखे गए हैं। जो मनुष्य जिस विषय को देखना चाहे वह उसी शब्दपर पुस्तक खोलकर देख ले। जो विषय जहाँ जहाँ जिस जिस जगह पर आया है उसकी भलावन (सूचना) भी उसी जगह पर दी है। और बड़े बड़े शब्दों पर विषयसूची भी दी हुई है जिससे विषय जानने में सुगमता हो / तथा प्रमाण में मूल सूत्र 1, और उनकी नियुक्ति 2, भाष्य 3, चूर्णि 4, टीका 5 तथा और भी प्रामाणिक आचार्यों के बनाए हुए प्रकरण आदि अनेक ग्रन्थों का संग्रह है। जिस शब्द पर या उसके विषय पर किसी आचार्य या श्रावक की कथा मिली है उसे भी उस शब्द पर संग्रह कर ली है। तथा प्रसिद्ध 2 तीर्थों की और सभी तीर्थकरों की कई पूर्वमवों से लेकर निर्वाणपर्यन्त कथायें दी हुई है; इत्यादि विषय आगे दी हुई संक्षिप्त सूची से समझना चाहिए।