________________ 25 साधुओं से कहा कि- "हमारे इस विनाशी शरीर का भरोसा अब नहीं है, इसलिये तुमलोग साधुक्रियापरिपालन में दृढ़ रहना, ऐसा न हो कि जो चारित्र रत्न तुम्हें मिला है वह निष्फल होजाए,सावधानी से इसकी सुरक्षा करना, हमने तो अपना कार्य यथाशक्ति सिद्ध कर लिया है अब तुम भी अपनी आत्मा का उद्धार जिस प्रकार हो सके वैसा प्रयत्न करते रहना"। इस प्रकार अपने शिष्यों को सुशिक्षा देकर सुसमाधिपूर्वक अनशन व्रत को धारण कर लिया और औषधोपचार को सर्वथा बन्द कर दिया। बस तदनन्तर थोड़े ही दिन के बाद परमोपकारी धर्मप्रभावक आचार्यवर्य श्रीमान् श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वर महाराजजी ने अपने इस अनित्य शरीर का सम्वत् 1963 पौष शुक्ल 7 शुक्रवार मुताबिक 21 दिसम्बर सन् 1906 ई० को समाधियुक्त परित्याग किया, अर्थात् इन नाशवान् संयोगों को छोड़कर स्वर्ग में विराजमान हुए। उपसंहार महानुभाव पाठकवर्ग ! इस समय जीवनचरित्र लिखने की प्रथा बहुतही बढ़ गयी है इसलिये प्रायः बहुत से सामान्य पुरुषों के भी जीवनचरित्र मिलते हैं किन्तु जीवनचरित्र के लिखने का क्या प्रयोजन है यह कोई भी नहीं विचार करता, वस्तुतः सत्पुरुषों की जीवनघटना देखने से सर्व साधारण को लाभ यह होता है कि जिस तरह सत्पुरुष क्रम क्रम से उच्चकोटीवाली अवस्था को प्राप्त हुआ है वैसी ही पाठक भी अपनी अवस्था को उच्चकोटीवाली बनावे और दुर्जन पुरुषों की जीवनघटना देखने से भी यह लाभ होता है कि जिस तरह अपने कुकर्मों से दुर्जन अन्त में दुरवस्था को प्राप्त होता है वैसा वाचक न हो, किन्तु दुर्जन की जीवनघटना की अपेक्षा से सत्पुरुष के ही जीवनचरित्र पढ़ने से शीघ्र लाभ हो सकता है, इसीलिये पाठकों को महानुभाव सूरीश्वरजी का यह जीवनपरिचय कराया गया है, जिससे आपभी ऐसी अवस्था को प्राप्त होकर सदा के सुखभागी बनें , क्योंकि सूरीजी का जीवन इस संसार में केवल परोपकार के वास्ते ही था, न कि किसी स्वार्थ के वास्ते / यदि रागद्वेषरहित बुद्धि से विचारा जाय तो हमारे उत्तमोत्तम जैन धर्म की उन्नति ऐसे ही प्रभावशाली क्रियापात्र सद्गुरुओं के द्वारा हो सकती है। आपका जीवनपरिचय बहुत ही अद्भुत और आश्चर्यजनक है, उसका यह दिग्दर्शनमात्र कराया गया है, किन्तु बड़ा 'जीवनचरित्र' जो बना हआ है उनमें प्रायः बहुत कुछ सूरीजी महाराज का जीवन परिचय दिया गया है, इसलिये विशेष जिज्ञासुओं को बड़ा जीवनचरित्र देखना चाहिये, उसके द्वारा संपूर्ण आपका जीवनपरिचय हो जाएगा और इन महानुभाव महापुरुष के जीवनचरित्र को पढ़ने से क्या लाभ हुआ यह भी सहज में ज्ञात हुआ है। इत्यलं विस्तरेण / नवरसनिधिविधुवर्षे, यतीन्द्रविजयेन वागरानगरे / आश्विनशुक्लदशम्यां, जीवनचरितं व्यलेखि गुरोः॥१॥