________________ को निःस्वार्थ वृत्ति से पढ़ाकर विद्वान् कर दिया। श्रीपूज्यजी महाराज ने अपने विद्यागुरु का महत्त्व बढ़ाने के लिये दफतरीपन का ओहदा अधिकार सौंपा अर्थात् जो पदवियों किसी को दो जायँ और यतियों को अलग चौमासा करने की आज्ञा दी जाय तो उनको पट्टा पन्यास 'श्री रत्नविजयजी' के सिवाय दूसरा कोई भी नहीं कर सके ऐसा अधिकार अर्पण किया। तब ज्योतिष, वैद्यक और मंत्रादि से जोधपुर और बीकानेर नरेशों को रञ्जितकर छड़ी दुशाला प्रमुख शिरोपाव और परवाना श्रीधरणेन्द्रसूरिजी को भेट कराया। एक समय संवत् 1923 का चौमासा 'श्री धरणेन्द्रसूरिजी' ने शहर 'घाणेराव' में किया उस समय पं० श्रीरत्नविजयजी आदि 50 यति साथ में थे परन्तु भवितव्यत अत्यन्त प्रबल होती है करोड़ों उपाय करने पर भी वह होनहार किसी प्रकार टल नहीं सकती, जिस मनुष्य के लिये जितना कर्तव्य करना है वह होही जाता है, याने पर्युषणा में ऐसा मौका आ पड़ा कि श्रीपूज्यजी के साथ श्रीरत्नविजयजी का अतर के बाबत चित्त उद्विग्न हो गया, यहाँ तक कि उस विषय में अत्यन्त वाद विवाद बढ़ गया, इससे रत्नविजयजी भाद्रपद सुदी 2 द्वितीया के दिन 'श्रीप्रमोदरुचि' और 'धनविजयजी' आदि कई सुयोग्य यतियों को साथ लेकर 'नाडोल' होते हुए शहर' 'आहोर' में आये और अपने गुरु श्री प्रमोदविजयजी को सब हाल कह सुनाया। जब गुरुमहाराज ने श्रीपूज्य को हितशिक्षा देने के लिये श्रीसंघ की संमति से पूर्व परंपराऽऽगत सूरिमंत्र देकर रत्नविजयजी को अत्यन्त महोत्सव के साथ संवत् 1923 वैशाख सुदी 5 बुधवार के दिन 'आचार्य' पदवी दी और उसी समय आहोर के ठाकुर साहब 'श्रीयशवन्त सिंह जी ने श्रीपज्य के योग्य छड़ी, चामर, पालखी, सूरजमुखी आदि सामान भेट किया। और श्रीसंघ ने श्रीपूज्यजी को 'श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी' महाराज के नाम से प्रख्यात करना शुरू किया। श्रीपूज्य श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराज अपनी सुयोग्य यतिमण्डली सहित ग्राम विहार करते हुए मेवाड़देशस्थ 'श्रीशंभूगपधारे। यहां के चौमासी 'श्री फतेहसागरजी' ने फिर पाटोच्छ्व करा के राणाजी के 'कामेती' के पास भेट पूजा करायी। फिर गाँवो गाँव श्रावको से 'खमासमणा' कराते हुए संवत् 1924 का चौमासा 'श्रीसंघ के अत्यन्त आग्रह से शहर 'जावरे' में किया और 'श्रीभगवतीजी' सूत्र को व्याख्यान में बाँचा / यहां पर जनाणी मीठालालजी प्रमुख श्रावकों के मुख से श्रीपूज्यजी की प्रशंसा सुनकर 'नवाबसाहेव' ने एक प्रश्न पूछाया कि- "तुम्हारा धर्म हम अंगीकार करें तो हमारे साथ तुम खाना पीना करसकते हो, या नहीं"? इसका उत्तर श्रीपूज्यजी महाराज ने यह फरमाया कि- "दीन का और जैन का घर एक है इसलिये चाहे जैसी जातिवाला मनुष्य जैनधर्म पालता हो उसके साथ हम बन्धु से भी अधिक प्रेम रख सकते हैं,किन्तु लोकव्यवहार अस्पृश्य जाति न हो तो हम जैन शास्त्र के मुताबिक खाने पीने में दोष नहीं समझते हैं।" इत्यादि प्रश्न का उत्तर सुन और सन्तुष्ट हो अपने वजीर के जरिये मोहर परवाना सहित आपदागिरि, किरणीया, वगैरह लवाजमा भेट कराया। इस चौमासे में 'धरणेन्द्रसूरि' ने एक पत्र (रुक्का) लिखकर अपने नामी यति 'सिद्धकुशलजी' और 'मोतीविजयजी' को जावरे संघ के पास भेजा ! उन दोनों ने आकर संघ से सब वृत्तान्त (हकीकत) कहा, तब संघ ने उत्तर दिया कि-'हम ने तो इनको योग्य और उचित क्रियावान् देखकर श्रीपूज्य मान लिया है और आपके भी श्रीपूज्य गच्छमर्यादाऽनुसार चलेंगे तो हम उन्हें भी मानने को तैयार हैं। इस प्रकार बात चीत करके दोनों यति आपके पास आये और वन्दन विधि करके नयपूर्वक बोले कि आप तो बड़े हैं, थोड़ीसी बात पर इतना भारी कार्य कर डालना ठीक नहीं है, इस गादी की बिगड़ने और सुधरने की चिन्ता तो आपही को है। तब आपने मधुर वचनों से कहा कि मैं तो अब क्रियाउद्धार करने वाला हूँ मुझे तो यह पदवी बिलकुल उपाधिरूप मालूम पड़ती है परन्तु आपके श्रीपूज्यजी गच्छमर्यादा का उल्लंघन करके अपनी मनमानी रीति में प्रवृत्त होने लग गये हैं, इस वास्ते उनको नव कलमें मंजूर कराये बिना अभी क्रियाउद्धार नहीं हो सकता। ऐसा कह नव कलमों की नकल दोनों यतियों को दी, तब उस नकल को लेकर दोनों यति श्रीपूज्यजी के पास गये और सब