________________ 17 अर्थात् इस संसार में पहिले तो गर्भवास ही में मनुष्यों की जननी के कुक्षि (ख) में दुःख प्राप्त होता है, तदनन्तर बाल्यावस्था में भी मलपरिपूर्ण शरीर स्त्रीस्तनपयः पाने से मिश्रित दुःख होता है, और जवानी में भी विरह आदि से दुःख उत्पन्न होता है, तथा वृद्धावस्था तो बिलकुल निःसार याने कफ वातादि के दोषों से परिपूर्ण है, इसलिये हे मनुष्यो ! जो संसार में थोड़ा भी सुख का लेश हो तो बतलाओ? ||1|| इसवास्ते अरे भव्यो ! परमसुखदायक श्री जिनेन्द्रप्ररूपित अहिंसामय धर्म की आराधना करो जिससे आत्मकल्याण हो। इस प्रकार हृदयग्राहिणी और वैराग्योत्पादिका गुरुवर्य की धर्मदेशना सुनकर 'रत्नराज' के चित्त में अत्यन्त उदा-सीनता उत्पन्न हुई और विचार किया कि-वस्तुगत्या संयोग मोह ही प्राणीमात्र को दुःखित कर देता है, इससे मुझे उचित है कि आत्मकल्याण करने के लिये इन्हीं गुरुवर्य का शरण ग्रहण करूँ, क्योंकि संसार के तापों से संतप्त प्राणियों की रक्षा करने वाले गुरु ही हैं। ऐसा विचार कर अपने संबन्धिवर्गों की अनुमति (आज्ञा) लेकर बड़े समारोह के साथ संवत् 1903 वैशाख सुदी 5 शुक्रवार के दिन शुभयोग और शुभ नक्षत्र में महाराज 'श्री प्रमोदविजयजी' के कहने से उनके ज्येष्ठ गुरुभ्राता 'श्रीहेमविजयजी महाराज के पास यतिदीक्षा स्वीकार की, और संघ के समक्ष आपका नाम 'श्रीरत्नविजयजी' रखा गया। महानुभाव पाठकगण ! उस समय यतिप्रणाली की मर्यादा, प्रचलित प्रणाली से अत्यन्त प्रशंसनीय थी अर्थात् रजोहण मुहपत्ती सर्वदा पास में रखना, दोनों काल (समय) प्रतिक्रमण और प्रतिलेखन करना, श्वेत-मानोपेत वस्त्र धारण करना, स्त्रियों के परिचय से सर्वथा बहिर्भूत रहना, पठन और पाठन के अतिरिक्त व्यर्थ समय न खोकर निद्रादेवी के वशीभूत न होना, निरन्तर अपनी उन्नति के उपाय खोजना, और धर्मविचार या शास्त्रविचार में निमग्न रहना इत्यादि सदाचार से अतीव प्रशंसनीय प्राचीन समय में यतिवर्ग था। जैसे आज कल यतियों की प्रथा बिगड़ गयी है, वैसे वे लोग बिगड़े हुए नहीं थे, किन्तु इनसे बहुत ज्यादा सुधरे हुए थे। हाँ इतना जरूर था कि उस समय (1903) में भी कोई 2 यति परिग्रह रखते थे, परन्तु महाराज श्रीप्रमोदविजयजी' को रहनी कहनी बिलकुल निर्दोष थी, अर्थात् उस समय के और (दूसरे) यतियों की अपेक्षा प्रायः बहुत भागों में सुधरी हुई थी, इसी से पुरुषरत्न'श्री रत्नराजजी ने वैराग्यरागरञ्जित हो यतिदीक्षा स्वीकार की थी। फिर कुछ दिन के बाद 'श्रीप्रमोदविजयजी' गुरु की आज्ञा से श्रीरत्नविजयजी ने 'पूँगी सरस्वती' विरुदधारी यतिवर्य श्रीमान् श्रीसागरचन्द्रजी' महाराज के पास रहकर व्याकरण, न्याय, कोष, काव्य, और अलङ्कार आदि का विशेष रूप से अभ्यास किया। श्रीप्रमोदविजयजी' और श्रीसागरचन्द्रजी' महाराज की परस्पर अत्यन्त मित्रता थी। जब दोनों का परस्पर मिलाप होता था, तब लोगों को अत्यन्त ही आनन्द होता था। यद्यपि दोनों का गच्छ भिन्न २था, तथापि गच्छों के झगड़ो में न पड़कर केवल धार्मिक विचार करने में तत्पर रहते थे, इसलिये 'श्रीसागरचन्द्रजी' ने आपको अपने अन्तेवासी (शिष्य) की तरह पढ़ाकर होशियार किया था। 'सागरचन्द्रजी' मरुधर (मारवाड़) देश के यतियों में एक भारी विद्वान थे, इनकी विद्वता की प्रख्याति काशी जैसे पुण्यक्षेत्र में भी थी, आप ही की शुभ कृपा से श्रीरत्नवियजजी' स्वल्पकाल ही में व्याकरण आदिशास्त्रों में निपुण और जैनागमों के विज्ञाता हो गये, परन्तु विशेषरूप से गुस्साम्य शैली के अनुसार अभ्यास करने के लिये तपागच्छाधिराज श्रीपूज्य श्रीदेवेन्द्रसूरिजी महाराज के पास रहकर जैनसिद्धान्तों का अवलोकन किया और गुरुदत्त अनेक चमत्कारी विद्याओं का साधन किया। आपके विनयादि गुणों की और बुद्धि विलक्षणता को देखकर 'श्रीदेवेन्द्रसूरिजी महाराज ने आपको शहर 'उदयपुर' में श्रीहेमविजयजी' के पास बड़ी दीक्षा और 'पन्यास' पदवी प्रदान करवाई थी और अपने अन्त समय में 'पं० श्रीरत्नविजयजी' से कहा कि-"अब मेरा तो