Book Title: Aagam 01 ACHAR Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 213
________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [१७२ १८० ] दीप अनुक्रम [१८६ १९३] श्री आचारांग सूत्रचूर्णिः ॥२०८॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (निर्युक्ति:+चूर्णि:) - श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६] उद्देशक [१], निर्युक्तिः [२५० - २५२], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक १७२-१८० ] पभृता, अभिसंबुद्धा जाब अट्ठवरिसाओ आरम्भ सतित्ररिसेणं देवणा वा पुञ्चकोडी, अभिसंबुद्धा तित्थगरा, सच्चे अभिसेकाल एवं संबुद्धा, सेसावि केई अपडिवडितेणं सम्मतेणं गम्भं वकमंति, केसिंचि गम्भद्वाणं जाइसरणेणं उप्पअर, पसूयाण वा चालते जाब वुहुत्ते अभिणिक्खता, कम्माभिमुद्दा णिक्खता अभिणिक्खता, अणुपुथ्वेणं जो एसो आदि उपकमो उवदिट्ठो, महंतं जेण मुणितं जीवादि वा सो महासुणी, 'तं परकमंतं परिदेवमाणा' तं ते च साहु आदिओ वा कम्मति अन्भुजय विहाराय मोक्खं वा मातापितामादि णातिगा देवणं-कंदणं, मा णे जहाहि इति ते वदंति, 'छंदोवणीता' छंदो इच्छा, छंदा उबणीया छंदेण वा उबणीतं, भणितं - अण्णोष्णवसाणुयतं, अज्झोववण्णा तेहिं तेहिं संबंधिविसेसेहिं कारोवकारविसेसेहिय मुच्छिता -गिद्धा गढिता अज्झोबवण्णा, अञ्चत्थं कंदो अकंदो, तेहिं उवसग्गविसेसेहिं अकंदं कुब्वंति अकंदकारी, जणंतीति जणगा, मम पिया बंधवा रोयंति, रुदंता य एवं भणति 'अतारिसे मुणी' उद्धं गवि ओहं संसारसागरतारी मुणी भवति जेण जणगा पगतं जढा विविहं जढ़ा विजढा भावितं अणुरता कुयमाणा दीणदुम्मणमाणसा 'वाह! पित कंत सामिय०' एवमादि, अहवा अतारियो ण वारिसो, मुणी गत्थि, जेण किं कथं ? जेण जणगा विप्पजटा, अहवा अतारियो पोतवहणं णावाभूतो अपणो परेमिं च संसारसमुद्दतरणाय जणया दुच्चता जेण विप्पजढा 'सरणं तत्थ से णो समेति' सरंति तमिति सरणं, तत्थ-बंधुगणे, ण णवि, सो तं अणुरपि बंधत्रगणं सरणमिति समत्थं समं वा ते इति समेति, जह ते मम परलोगभया सरणं भविस्संति एवं ण समेति, अडवा सरीरादिपरिचाणाए जह वृत्तं तेहिं ण सो संसारं तरति जणगा जेण विप्पजदा, एतप्पगारं अणुलोमं उसण सरणं समेति, जहा मम मातापितिमादि, एवं दुक्ख परिचाणाए भविस्मति, किं १, न रमणीयो गिवासो जेण सो ण रमति, गिवासे किं धम्मो णत्थि भणियं च मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः [212] पराक्रमादि ॥२०८॥

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