Book Title: Aagam 01 ACHAR Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 283
________________ आगम (०१) प्रत वृत्यंक [२१६ २१७] दीप अनुक्रम [२२९ २३०] श्रीआचारांग सूत्रचूर्णि ॥२७८॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (निर्युक्तिः+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [५], निर्युक्ति: [ २७५...], [वृत्ति अनुसार सूत्रांक २१६-२१७] बेयायचं, गिलाणोसहेण बावारसमणा शिव्त्रायणं मोहता मूलादिगिलाणेण अगिलाणेहिं तस्य पुण अणुपरिहारितो करेति, कप्पद्वितो वा, जइ तेवि गिलाणाओ सेसमा करेंति, एवं अहालंदिताणवि, अभिकख सामियवेयावडियं सो निजराकंखितेहिं सरिकप्पएहिं ण पुण थेस्कप्पिएहिं गिहत्थेहिं वा कीरमाणं सातिजिस्मामि, जहा चेत्र पढिष्णते अपडिण तेहिं गिलाणो अगिला हिं वेयावडियं कीरमाणं सातिनिस्सामि तहा परस्सवि जहण्णेग कयपडिकतियाए अहं खलु पनित्तो पडिण्णत्तस्स पडिपणती णाम नाहं साइजिस्सामि ण य वेयावचं केणयि अन्त्यव्य इति अपडिण्णत्तो अपडिण्णत्तरसत्ति अहं तव इच्छाकारेण वैयावडियं करेमि जांव गिलायसि, अगिलाणो गिलाणस्स वैयावचं गुणे अभिकंखित्ता वैयावडियं करिस्सामि एवं ताव दण्डं भणितं, तंजहा एगो करेति एगो कारवेति इदाणिं तेसिं चैव चत्तारि विगप्पा आहद्दु परिवणं अणिविस्वस्सामि आरुमिता पहने अहवा अपडित्ते आरुमित्ता पहनं अनिक्खिस्सामिति-अणिरिससामि करेस्सामि सरिकधियवेयावचं आहड च साइजिस्सामि, अणुपरिहारितो अण्णतरो वा गिलाणस्स वेयावडियं काहिति तंपि अहं सम्माणिहामि, चितियो अभिग्गदं गिण्डति, तंजा सरिकप्पियस्स आहडं परिणयं अणिक्खिस्सामि गिलायमाणस्स, जं भणितं आणेतुं दिस्यामि पुण गिलायमाणोवि सरिकष्पितेणावि वैयावडियं कीरमाणं सातिजिस्यामि एवं तइयचउत्था य जहा सुवे तहा विभावियया ततियभंगे अहालंदिया चैव पडिवी, उत्थभंगे जिणकप्पिओ, लाघवितं आगमेमाणो सुण ता लाघवितं दच्चे भावे य, जं इच्छमाणे जाय संमत्तमेव समभिजाणित्ता, एवं से अहाकिनिमेव किट्टितो दरिसितो तित्थगरेहिं, जहां कितिओ अहाकिट्टितो, एवमवधारणे दुवत्थमादि धम्मं, जो य अन्य अज्झाते अभिग्गहविसेसो भणितो तं अभिमुहं जाणमाणे समभिजाण माणो परमाणो य संतो विर मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: [282] वैयावृष्यविचार: ॥२७८॥

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