Book Title: Ratribhojan Tyag Avashyak Kyo
Author(s): Sthitpragyashreeji
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिभोजन त्याग आवश्यक क्यों? साध्वी स्थितप्रज्ञा श्री पार्श्वनाथ वाराणसी पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला १६१ सज्जनमणि ग्रन्थमाला ३ रात्रिभोजन त्याग आवश्यक क्यों? सम्प्रेरिका सज्जनमणि पूज्या शशिप्रभा श्रीजी म.सा. लेखिका साध्वी स्थितप्रज्ञाश्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तः आशीष : खरतरगच्छाधिपति प. पू. कैलाशसागर सूरीश्वर जी म. सा. उपाध्यायप्रवर प.पू. मणिप्रभसागर जी म. सा. दिव्याशीष : प्रवर्तिनी महोदया गुरुवर्या प.पू. सज्जन श्रीजी म. सा. प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. रोड, करौंदी, वाराणसी-२२१००५ फोन : 0542-2575521, 2575890 Emails : pvri@sify.com parshwanathvidyapeeth@rediffmail.com संशोधन : राजेन्द्र गोलछा, टाटानगर संस्करण : प्रथम, २००९ : पार्श्वनाथ विद्यापीठ मूल्य : रुपये- 20.00 प्राप्ति स्थान : पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. रोड, करौंदी, वाराणसी-२२१००५ श्री सुनील जी बोथरा सज्जनमणि ग्रन्थमाला टूल्स एण्ड हार्डवेयर, संजय गांधी चौक स्टेशन रोड,रायपुर (छत्तीसगढ) M- 09425206183 अक्षर-सज्जा : विमल चन्द्र मिश्र, डी. ५३/९७, ए-८, पार्वतीपुरी कालोनी, गुरुबाग कमच्छा, वाराणसी मुद्रक : वर्द्धमान मुद्रणालय, भेलूपुर, वाराणसी-२२१०१० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरा तुझको अर्पण मोह उदये अमोही जेहवा, शुद्ध निज साध्य लयलीन रे । देवचन्द्र तेह मुनि वंदिये, ज्ञानामृत रसपीन रे ।। आगमज्योति, आशुकवयित्री, आगममर्मज्ञा प्रवर्तिनी महोदया पूज्या सज्जनश्रीजी म. सा. के पादारविन्दों में सादर समर्पित। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत सहयोगी लखनऊ निवासी जिनधर्मानुरागी अनिल जी जिनशासन समर्पिता अंजना जी प्रतिव्याशालिनी अंशू जी अध्ययनरसिका अमीवर्षा जी जडिया परिवार Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय मानव संसार का सर्वाधिक विकसित प्राणी है। मानव के अतिरिक्त अन्य सभी प्राणी अपनी प्रकृति के अनुसार स्वयं के अनुकूल आहार का अन्वेषण कर उसका उपयोग करते हैं। मानव अपनी विकसित बुद्धि और कार्य क्षमता का उपयोग कर आहार उत्पन्न करता है। वह ऐसे उत्पादित तथा प्रकृति में स्वत: उपलब्ध आहार को विभिन्न क्रियाओं द्वारा अपनी रुचि के अनुसार अपने भोजन का अंग बनाकर उपयोग करता है। कहा गया है- स्वस्थ शरीर में स्वस्थ दिमाग रहता है। अतः भोजन शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है, लेकिन वही भोजन शरीर के लिए लाभप्रद है जो सही समय पर ग्रहण किया जाता है। शारीरिक विज्ञान के अनुसार वैसे तो शरीर के सभी अंगों में प्राणऊर्जा का प्रवाह चौबीसों घंटे होता है, परन्तु सभी समय सभी अंगों में एक समान नहीं होता है। प्रत्येक अंग कुछ निश्चित समय के लिए प्रकृति से प्राप्त अधिकतम प्राणऊर्जा के कारण अधिक सक्रिय होता है और यही कारण है कि चौबीस घंटे व्यक्ति की एक जैसी स्थि िनहीं रहती है। अतः प्रकृति के अनुरूप अपनी दिनचर्या को निर्धारित और संचालित करने से शारीरिक क्षमताओं का अधिकाधिक उपयोग हो सकता है। शरीर का जो अंग जिस समय सर्वाधिक सक्रिय हो उस समय उस अंग से सम्बन्धित कार्य करने से सर्वाधिक लाभ हो सकता है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (viii) पाचनतंत्र की दृष्टि से भोजन का पाचन जितनी सहजता से प्रात:काल में होता है उतनी सहजता से अन्य समय में नहीं होता है। हमारे ऋषि मुनियों ने प्रात:काल में किए गए भोजन को अधिक सुपाच्य बताया है जो अमृततुल्य है। इस मान्यता की पृष्ठभूमि में जो तथ्य है वह है सूर्य की रोशनी में रोग-प्रतिकारक शक्ति का होना। सूर्य की तपिश में ऐसे अनेक विषैले कीटाणु निष्क्रिय बन जाते हैं, जो सूर्यास्त के बाद सक्रिय होने लगते हैं। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर पूज्या साध्वीश्री स्थितप्रज्ञा श्रीजी ने 'रात्रिभोजन त्याग क्यों?' विषय पर लघु पुस्तिका का प्रणयन किया है जो वर्तमान सन्दर्भ में सबके लिए उपयोगी है। इस अनुपम कृति के लिए साध्वीश्री को साधुवाद। इस पुस्तक के प्रकाशन में अर्थ-सहयोगी रहे जिनधर्मानुरागी अनिलजी, जिनशासन समर्पिता अंजनाजी, प्रतिभाशालिनी अंशूजी एवं अध्ययनरसिका अमीवर्षाजी जड़िया परिवार के प्रति हम आभारी हैं। पार्श्वनाथ विद्यापीठ के डाइरेक्टर इंचार्ज डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ. सुधा जैन, डॉ. विजय कुमार एवं श्री ओमप्रकाश सिंह आदि को मेरा धन्यवाद जिन लोगों ने इस पुस्तक के प्रकाशन में अपना अमूल्य समय दिया है। सुन्दर अक्षर-सज्जा के लिए श्री विमलचन्द्र मिश्र, रथयात्रा, वाराणसी तथा सत्वर मुद्रण के लिए महावीर प्रेस, भेलूपुर, वाराणसी सर्वथा धन्यवाद के पात्र हैं। सागरमल जैन मानद् सचिव पार्श्वनाथ विद्यापीठ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मीय स्वर आहार प्राणी की प्राथमिक आवश्यकता है। जैन श्रावकाचार में रात्रिभोजन त्याग को विशेष महत्त्व दिया गया है। अन्य परम्पराओं में भी रात्रिभोजन को महापाप बतलाया गया है। इस युग में अधिकांश रोगों का मूल कारण अशुद्ध एवं अनियमित आहार को कहा जा सकता है। पूज्या गुरुवर्य्या श्री सदैव कहती थीं- 'जिसे लाली बाई को वश रखना आ गया उसने जीवन में सब कुछ पा लिया। कहा भी गया है कि "भावे जैसा खाना नहीं और आवे वैसा बोलना नहीं" दोनों ही संकट के कारण बनते हैं। रात्रिभोजन हमारे बाह्य जगत् और आभ्यन्तर जगत् दोनों को प्रभावित करता है तथा वैचारिक दूषण भी लाता है। यह लोकपरलोक दोनों को बिगाड़ने का कार्य करता है, परन्तु हमारी वर्तमान जीवन प्रणाली में यह हमारी ऋद्धि-समृद्धि का प्रतीक बन गया है। शादी-पार्टी रिसेप्शन आदि में रात्रिभोजन आम बात हो गई है, किन्तु इन सामाजिक कुरीतियों को तोड़ना हमारे हाथ में है। पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने वाले अपनी प्राचीन सभ्यता को भूलते जा रहे हैं और इन सबके लिए हमारी व्यवस्था प्रणाली जिम्मेदार है। साध्वी स्थितप्रज्ञा श्रीजी, जिन्होंने "जैन मुनि की आहार चर्या ' पर पी-एच. डी. की है, रात्रिभोजन त्याग करवाने में विशेष रुचि रखती हैं। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीश्री के लखनऊ चातुर्मास की स्मृति एवं वर्षीतप की पूर्णाहुति के निमित्त श्रावक श्रेष्ठ श्री अनिल जी जड़िया परिवार अपने अर्थ का सद्व्यय करते हुए एक ऐसी पुस्तिका समाज के हाथों में दे रहे हैं जो युग-युग तक भावी पीढ़ी का मार्गदर्शन करती रहेगी। उनके भावों की बहुत-बहुत अनुमोदना है। साध्वी स्थितप्रज्ञा जी इसी तरह अध्ययन सेवादि कार्यों में संलग्न रहें, ऐसी शुभाकांक्षा है। शासन सेविका शशिप्रभा श्री कलकत्ता, चैत्री पूर्णिमा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वस्वर नवाबों की नगरी लखनऊ वासियों के परम सौभाग्य एवं पुण्य कर्मों का साक्षात् प्रमाण सन् २००७ में देखने को मिला, जब श्री संघ की प्रबल भावना एवं पूर्ण समर्पिता अंजना जी जड़िया के अथक प्रयासों से ३५ वर्षों के लंबे अंतराल के बाद जैन शासन की अनुपम थाती, आगमज्योति प्रवर्तिनी महोदया पूज्या सज्जन श्रीजी म.सा.की विदुषी शिष्या प्रवचन प्रभाविका, तप-जप साधिका पूज्या शशिप्रभा श्रीजी म.सा. की निश्रावर्तिनी सहज स्वभावी प.पू. स्थितप्रज्ञा श्रीजी म.सा. एवं सरलमना प.पू. सिद्धप्रज्ञा श्रीजी म.सा. के चातुर्मास से यह धरती पावन बनी। ३५ वर्षों पूर्व इसी लखनऊ नगरी में आशु कवयित्री पूज्या सज्जनश्री जी म.सा., पूज्या शशिप्रभा श्रीजी म.सा. आदि म.सा. का चातुर्मास शांतिनाथ मंदिर, सुरंगी टोला चौक में हुआ। इतने लम्बे अंतराल के पश्चात् जन-जन में एक नया आलोक एवं चेतना को जागृत करने का जो महान कार्य उन्हीं की दो शिष्याओं के द्वारा किया गया वह अतुलनीय एवं प्रशंसनीय है। प.पू. स्थितप्रज्ञा श्रीजी म.सा. की दीक्षा के १४ वर्षों के पश्चात् प्रथम चातुर्मास के प्रथम दिन से ही सरल सहज मार्मिक एवं हृदय की गहराइयों को छू लेने वाले प्रवचनों का ऐसा नजारा दिखा कि लोगों में जमीकंद त्याग, रात्रिभोजन त्याग एवं अध्यात्म की भावना उमड़ने लगी। ____ चातुर्मास काल में हुई नौ, आठ, तेले की तपस्या एवं नवपद जी की सामूहिक ८१ आयंबिल आराधना लखनऊ के इतिहास में Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xii ) अविस्मरणीय रहेगी। जिनशासन परम्परा का अविच्छिन्न पर्वाधिराज पर्युषण पर्व पर पूज्या साध्वीद्वय के सान्निध्य ने इसकी महत्ता को और भी बढ़ा दिया। इस पर्व में अनेक प्रकार की प्रतियोगिताएँ आयोजितकी गईं। पर्युषण पर्व के पश्चात् राजुल एवं नेमिनाथ भगवान् की भव्य प्रस्तुति ने लोगों का मन मोह लिया। लोगों को २२वें तीर्थंकर प्रभु नेमिनाथ के जीवन चरित्र को निकट से देखने एवं समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। युगप्रधान चारों दादा गुरुदेव की जयंतियाँ भी बड़े ही भावोल्लास व धूमधाम से मनायी गयीं। यूं तो नियमित पूजा होती रहती थी लेकिन साध्वीद्वय की तेजस्वी वाणी का ऐसा प्रभाव था कि इन कार्यक्रमों में जन सैलाब उमड़ आता था । चातुर्मास के सभी प्रसंगों पर नजर डालें तो एक दिव्य सवेरा नजर आता है, जो कभी प्रेम के फूलों की तरह, कभी करुणा के झरनों की तरह तो कभी ज्ञान का आलोक विखेरता नजर आता है। चातुर्मास के ये क्षण लखनऊ वासियों के भविष्य को उतना ही प्रेममय, करुणामय, अहिंसामय और साधनामय बनाते रहेंगे। जिनशासन समर्पित अनिल जी एवं कर्तव्यनिष्ठा अंजना जी जड़िया ने इस पुस्तक को प्रकाशित करने का आग्रह किया । इनकी इस भावना की अंतःकरण से अनुमोदना करते हैं। प. पू. स्थितप्रज्ञाजी म. सा. ने रात्रिभोजन त्याग के सम्बन्ध में अपने विचार जिस ढंग से प्रस्तुत किये हैं वे निश्चित रूप से जनमानस को जागृत करने में सहायक होंगे। आज पूरा विश्व आकांक्षाओं की दौड़ में अविश्रांत भागा जा रहा है। वर्तमान विषमताओं और समस्याओं में घिरा जकड़ा जा रहा है। परिग्रह और शोषण अपनी चरम सीमा पर है, किन्तु विचारों की विषमता, व्यवहार व आचरण की विषमता, अनेक मत-मतांतरों की विषमता Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xiii ) होने पर भी रात्रिभोजन त्याग को लेकर अनेक ग्रन्थों, अनेक धर्मों और अनेक दार्शनिक मतों में समानता है। जैन धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्म में भी रात्रिभोजन को पाप कहा गया है। यदि जैन आगम यह संदेश देता है कि रात्रिभोजन नरक का द्वार है तो हिन्दूशास्त्र जैसे महाभारत, मार्कण्डेय पुराण, यजुर्वेद, गीता में भी रात्रिभोजन को महापाप बताया गया है। प्रस्तुत पुस्तक में अत्यंत सहज, सुगम, सरल, ओजस्वी पूर्ण शैली में रात्रिभोजन त्याग के विचारों को प्रस्तुत किया गया है, साध्वी श्री ने रात्रिभोजन त्याग को जैन धर्म-दर्शन एवं जैनेतर धर्म-दर्शन की दृष्टि से भी समझाने का प्रयत्न करते हुए विविध दृष्टियों से रात्रिभोजन के दुष्परिणामों पर प्रकाश डाला है। इस प्रथम संस्करण के प्रकाशन के अवसर पर सरल स्वभावी, मृदुभाषी डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय एवं डॉ. विजय कुमार के हम आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक की प्रूफ रीडिंग एवं मुद्रण सम्बन्धी व्यवस्थाओं में अपना अमूल्य समय एवं सहयोग दिया। इस पुस्तक के संशोधन के लिए हम प्रतिभा सम्पन्न श्रीमान् राजेन्द्र गोलेछा के भी आभारी हैं जिन्होंने अपने व्यस्त जीवन में इसके लिए समय निकाला। अर्तमन से यही अभीप्सा है कि यह पुस्तक समस्त स्वाध्यायी वर्ग के लिए उपयोगी एवं मार्गदर्शी बने एवं हम सभी आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो सकें। अंशू जैन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृत स्वर “रात्रिभोजन त्याग आवश्यक क्यों है?" अहिंसा के पालनार्थ या परम्परा के अनुगमन हेतु। क्या रात्रिभोजन निषेध भौतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से आवश्यक है? यदि हाँ, तो महावीर के अनुयायियों एवं समस्त प्राणियों से मेरा विनम्र निवेदन है कि अभी भी समय है चेतो, जागो और प्रण करो 'रात्रिभोजन न करने की।' पूर्व भवों में किये गये पुण्य कर्मों के प्रभाव से देव-दुर्लभ नर तन पाकर यदि आवागमन के चक्र से मुक्ति पानी है, तो जीवन में पाप कर्मों का संचय क्यों? समस्त जीव योनियों में श्रेष्ठ नर योनि पाकर भी पाप मार्ग का अवलम्बन क्यों? जैन धर्म के अनुयायी होकर भी तीर्थंकर भगवान के बताये रास्ते से विमुखता क्यों? जैन एवं अहिंसक प्रायः समनार्थी हैं। रात्रि में सूक्ष्म जीव कीट-पतंगें, मक्खी, मच्छर कृत्रिम प्रकाश में अधिक आते हैं, फिर रात्रिभोजन के प्रति आसक्ति क्यों? यह विचारणीय विषय है। त्याग-तप-संयम के श्रमण पथ पर दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ते हुए आहार संबंधी नियमों एवं निषेधों की विवेचना इस पुस्तक का प्रतिपाद्य विषय है। निश्चय ही यह पुस्तक पूज्या स्थितप्रज्ञा श्रीजी म. सा. के इस विषय पर गहन अध्ययन एवं चिंतन मनन का परिचायक है। यह पुस्तक जैन अजैन समस्त प्राणियों के लिये पठनीय है। ___ जीवित रहने के लिये आहार लेना आवश्यक है, परंतु कब, कैसा और कितनी मात्रा में आहार लेना आवश्यक है- यह नियत करना तो Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xiv ) और भी जरूरी है। क्षुधापूर्ति तो पशु-पक्षी भी करते हैं; परंतु एक निश्चित विधान के अंतर्गत। पक्षी रात्रि में भोजन नहीं करते, पशु क्षुधा न होने पर न तो शिकार करता है और न ही भोजन। तब मानव ही क्यों समयकुसमय, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार किये बिना खाद्य-अखाद्य वस्तुओं को ग्रहण करता जाता है। यह चिंतन का विषय है। प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से जन-चेतना को जागृत कर उसे सात्विक जीवन जीने की कला सिखाने का साध्वीश्री का यह प्रयास निश्चय ही सराहनीय है। प्राणी मात्र को क्षुधा शांत करने हेतु सात्विक भोजन दिन में ही ग्रहण करना उचित है, जिससे इस जीवन में तन-मन-धन का लाभ हो तथा धर्माराधन द्वारा पुण्य संचय करके आवागमन के चक्र से मुक्त हो मोक्ष को वरा जा सके। शान्ति दूगड़ विभागाध्यक्ष, समाजशास्त्र विभाग, खुनखुनजी गर्ल्स पी.जी. कालेज लखनऊ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका १. आहार कैसा हो? २. आहार कब हो? ३. रात्रिभोजन आवश्यकता या लापरवाही? ४. रात्रिभोजन त्याज्य क्यों? ५. आगम एवं आगमिक व्याख्या ग्रन्थों की दृष्टि से निषेध ६. प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रन्थों की दृष्टि से निषेध ७. जैनेतर ग्रन्थों की दृष्टि से निषेध ८. आध्यात्मिक लाभ की दृष्टि से निषेध ९. यौगिक विकास की दृष्टि से निषेध १०. अहिंसा लाभ की दृष्टि से निषेध ११. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से निषेध १२. प्रकृति और पर्यावरण की दृष्टि से निषेध १३. पारिवारिक लाभ की दृष्टि से निषेध १४. स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से निषेध १५. चिकित्सा की दृष्टि से निषेध १६. रात्रिभोजन में भोजन पकाने सम्बन्धी दोष १७. रात्रि में खाने सम्बन्धी दोष १८. सर्वसामान्य दृष्टि से दोष १९. रात्रिभोजन त्याग करने से होने वाले लाभ २०. रात्रिभोजन त्याग सम्बन्धी दृष्टान्त २१. संदर्भ २२. संदर्भ-ग्रन्थ-सूची Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिभोजन त्याग आवश्यक क्यों? आज के भौतिक चकाचौंध की दुनियाँ में मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य विस्मृत हो रहा है। पाश्चात्य संस्कृति केवल भोगविलासिता के साधन जुटाने की ही प्रेरणा दे रही है। जबकि मानव देह का मुख्य लक्ष्य है अनाहारी पद की प्राप्ति । परन्तु जब तक जीवन है तब तक यह संभव नहीं कि हम आहार का परित्याग कर सकें। जन्म लेने के साथ ही इसकी आवश्यकता प्रारम्भ हो जाती है। हम देखते हैं जब बच्चा जन्मता है, जन्म के साथ ही रुदन की क्रिया शुरू कर देता है और माता द्वारा दूध पिलाते ही वह शान्त हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि जीव की सर्वप्रथम आवश्यकता भोजन है। 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन, जैसा पीये पानी वैसी होवे वाणी' इस प्राचीन कहावत से ज्ञात होता है कि आहार हमारे जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करता है। आहार और मन का घनिष्ठ सम्बन्ध है । अतः आहार कैसा हो, कब हो और कितना हो? इन बिन्दुओं पर प्रकाश डालना आवश्यक है। आहार कैसा हो? प्राचीन ऋषियों व साधकों ने गहन अनुभव के आधार पर सात्त्विक सदाचारी, संस्कारी एवं दीर्घायु जीवन जीने के लिए शाकाहार का निर्देश किया है। अपवादतः इस सम्बन्ध में विधि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) निषेध भी बतलाये गये हैं। आहार में खाने योग्य क्या, अखाद्य क्या, कौन - सा आहार कब योग्य, कब अयोग्य इत्यादि विस्तृत चर्चा ग्रन्थों में प्राप्त होती है। सामान्यतः मनुष्य जिस तरह का खाता है उसे उसी तरह के विचार आते हैं, अतः मनुष्य का आहार सात्त्विक होना चाहिए, न्याय - नीति, सदाचार एवं ईमानदारी से अर्जित होना चाहिए। जब जीवन में धर्मप्रियता और न्यायप्रियता होती है तब अन्याय, कपट, छलवृत्ति के दोष नहीं पनपते, व्यक्ति शान्तिपूर्वक जीवन यापन करता है। कुछ लोग कहते हैं कि हमें तो पेट भरने से मतलब है इसलिए जो मिले ठीक है, टेंशन नहीं करते। पर सोचिए, हमारा पेट कोई कूड़ेदान नहीं, जिसमें हम कभी भी कुछ भी डालते रहें। लोलुपी मनुष्य बिना विचार किए स्वाद का आनन्द पाने के लिए कुछ भी खा लिया करता है, क्योंकि उसका एक ही ध्येय होता है- “खाओपीओ- मौज करो। " इसके विपरीत बुद्धिमान पुरुष हितकारी, लाभकारी एवं पथ्यकारी भोजन को प्रमुखता देते हैं। शुद्ध व सात्त्विक आहार से ही वैचारिक निर्मलता, बौद्धिक पवित्रता, आत्मविश्वास, धीरता, सदाचारिता आदि सद्गुणों की प्राप्ति होती है। शाकाहार से शरीर निरोग, आत्मा निर्दोष, मृत्यु समाधिमय और परलोक सद्गतिमय बनता है। आहार कब हो? आहार कैसा हो, इसके साथ यह तथ्य भी बहुत महत्त्व रखता है कि आहार कब हो? क्योंकि असमय में किया गया महान् कार्य Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) भी निरर्थक हो जाता है, तब भोजन जो मुख्य रूप से हमारी क्षुधा को शांत करता है, साथ ही वह हमारे शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सभी क्षेत्रों को प्रभावित करता है। तब उसे तो और भी अधिक सजगता के साथ ग्रहण किया जाना चाहिए। सर्वप्रथम तो जब हमें अच्छी भूख लगे तब ही भोजन ग्रहण करना चाहिए और वह भी निर्धारित समय पर, ये सब हमारी जीवन शैली और आदतों पर निर्भर करता है। हम जैसी आदत डालते हैं शरीर को वैसी ही भूख लगती है अतः हमें उसी समय की आदत डालनी चाहिए जब प्रकृति हमारे शारीरिक यंत्रों को और अधिक सक्रिय कर सके। साथ ही जब हमें गहरी भूख लगती है तो पेन्क्रियाज (अग्नाशय) और आमाशय अधिक सक्रिय हो जाते हैं। यदि उस समय प्रकृति के द्वारा पर्याप्त प्राण ऊर्जा मिल जाये तो हमारी स्वयं की ऊर्जा कम खर्च होती है। प्रात:काल सूर्योदय के एक घंटे पश्चात् हमारा आमाशय सक्रिय होता है तथा उसके दो घंटे पश्चात् अग्नाशय अधिक सक्रिय होता है। इस समय किया गया प्रात:कालीन भोजन सर्वाधिक लाभकारी होता है तथा भोजन का पाचन सरलता से होता है। सूर्यास्त के दो घंटे पश्चात् आमाशय तथा उसके दो घंटे पश्चात् पेन्क्रियाज (अग्नाशय) की सक्रियता न्यून हो जाती है, क्योंकि प्रकृति प्रदत्त प्राण ऊर्जा का प्रवाह उस समय प्राप्त नहीं होता, अतः भोजन के लिए यह समय अनुचित है। बिना भूख के भोजन करना एवं असमय में भोजन करना भी लाभकारी नहीं है। हमारे भोजन के पाचन में बाह्य प्रकृति प्रमुख स्थान रखती है तथा सूर्य की उपस्थिति में किया गया भोजन ही सर्वाधिक लाभकारी है। किसी कवि ने कहा है Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) पाँच बजे उठना और नौ बजे भोजन करना। पाँच बजे भोजन करना और नौ बजे सो जाना ।। हमारा उठना-बैठना, खाना-पीना इन सबका हमारे स्वास्थ्य पर विशेष प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से रात्रिभोजन हमारे लिए किसी भी प्रकार से ग्राह्य नहीं है। रात्रिभोजन आवश्यकता या लापरवाही? वर्तमान युग में ९०% लोग रात्रिभोजन करते हैं। हमारी वर्तमान जीवन शैली इसी प्रकार की हो गई है। पर क्या यह हमारे लिए जरूरी है? अंग्रेजी में एक कहावत है "Early to bed and early to rise makes the man healthy, wealthy and wise" पर वर्तमान में "Late to bed and late to rise" वाली जीवन शैली बन गई है। हमारे दिन की शुरुआत ही गलत होती हो तो अन्य कार्य कैसे सही हो सकते हैं? पाश्चात्य परम्परा के प्रति बढ़ता हमारी रुझान और भौतिक जगत् की दौड़ में शामिल होने की हमारी होड़, इन सबने हमें सही मार्ग से बहुत दूर कर दिया है। हमारा सुबह का नाश्ता, दोपहर का भोजन, एवं शाम का भोजन, इनमें से कोई भी सही समय पर नहीं होता। । जैसा कि सुबह के नाश्ते के लिये प्रयुक्त होने वाला शब्द Break-fast स्वयं ही सूचित करता है- Break the fast यानि उपवास को तोड़ो अर्थात् जब उपवास हो उसके दूसरे दिन उस उपवास को छोड़ने या तोड़ने के लिए आहार ग्रहण करना Break Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) fast है पर वर्तमान में यह हमारा अभिन्न अंग बन गया है, चाहे उपवास हो या न हो, Break-fast यानी नाश्ता तो होगा ही और व्यक्ति जब आठ बजे उठकर नौ-दस बजे नाश्ता करेगा तो मध्याह्न का भोजन २-३ बजे से पहले ग्रहण कैसे करेगा और यदि ३ बजे भोजन करेगा तो पुन: ५-६ बजे सूर्यास्त के पूर्व आहार कैसे करेगा? अतः उसका शाम का भोजन १० बजे रात से पहले होगा नहीं और जब १० बजे खाना खायेगा तो सोएगा कब? १२ बजे सोने वाला पाँच बजे उठेगा कैसे? __इस युग में वैवाहिक प्रीतिभोज हो या सामान्य पार्टी, भोजन आदि के कार्यक्रम अधिकांशतः रात्रि में ही होते हैं। यदि दिन में करने का सुझाव दिया जाये तो जाता है कि दिन में भोजन करने आयेगा कौन? हर किसी के लिए कारोबार, स्कूल, नौकरी आदि की छुट्टी करना संभव नहीं है, इस प्रकार के तर्क देकर रात्रिभोजन को बढ़ावा देते हैं। परन्तु रात्रिभोज के पीछे नुकसान कितना है और लाभ कितना है, इस सन्दर्भ में अधिकांश लोग सोचते नहीं ? कदाचित् गहराई से चिन्तन करें तो निःसन्देह रात्रिभोजन से नफरत करने लगेंगे। बुद्धिजीवियों को इस सम्बन्ध में अवश्य विचार करना चाहिए। भिन्न-भिन्न काल तथा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में मानव आहार विविध प्रकार का रहा है। जिसका मुख्य कारण प्राकृतिक साधनों की उपलब्धि तथा वहाँ के निवासियों की शारीरिक और मानसिक क्षमता कही जा सकती है। परंतु वर्तमान में हमारा नजरिया बदल गया है। अब व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य मात्र भौतिक सुखों की प्राप्ति है, जिसके लिए आए दिन नए आविष्कार हो रहे हैं तथा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) उन्हें पाने की होड़ भी उतनी ही बढ़ रही है। नई पीढ़ी विज्ञापन जगत् के पीछे चलती है। आहार का मुख्य आकर्षण स्वाद, सुगंध उसकी आकृति और मनमोहक पैकिंग हो गई है। उसकी पौष्टिक गुणवत्ता तथा स्वास्थ्य-लाभ गौण हो गया है। ___रात्रिकाल में रेस्टोरेन्ट, होटल, ठेला आदि का भोजन करना, पैकिंग फूड, फास्ट फूड, टीन फूड आदि का सेवन करना, ये सब आहार की गुणवत्ता को घटाने के प्रतीक हैं। क्या ये सब हमारे लिए आवश्यक हैं? क्या इनके बिना जीवन यापन असंभव है? रात्रिभोजन के लिए जहाँ एक तरफ हमारी असजगता और लापरवाही जिम्मेदार है, वहाँ दूसरी तरफ हमारी सामाजिक व सरकारी व्यवस्था। इन्हीं कारणों से बहुत बार, कई लोग नहीं चाहते हुए भी परिस्थितिवश रात्रिभोजन करते हैं। पर अब हमें जागना होगा, वरना स्वस्थ व्यक्ति ढूँढ़ना मुश्किल हो जाएगा। रात्रिभोजन त्याज्य क्यों? रात्रिभोजन केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, अपितु स्वास्थ्य और विज्ञान की दृष्टि से भी त्याज्य है। प्रकृति भी हमें यही संदेश देती है। सूर्य का प्रकाश हमारे आरोग्य को नवजीवन प्रदान करता है। आयुर्वेद शास्त्र नाभि की तुलना कमल से करता है और जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से कमल विकसित होता है और सूर्यास्त होते-होते निष्क्रिय हो जाता है, वैसे ही हमारा नाभिकमल सूर्योदय के साथ विकसित होता है, उसकी क्रियाशक्ति गतिशील होती है और सूर्य की रोशनी के अभाव में वह मुरझा जाता है तथा पाचन तंत्र भी कमजोर पड़ जाता है। अतः स्वास्थ्य और शारीरिक दृष्टि से रात्रिभोजन त्याज्य है। । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (7) सभी धर्म रात्रिभोजन को महापाप मानते हैं। आयुर्वेदशास्त्र के अनुसार रात्रिभोजन करने से स्वास्थ्य हानि, स्वभाव में उग्रता, कषायों का वर्धन, रोगों को आमंत्रण आदि कई अनिश्चित कार्य होते हैं। टी. हार्टली हेनेसी ने अपनी पुस्तक Healing by Water" सूर्यास्त के पूर्व भोजन का समर्थन किया है। डॉक्टरों के अनुसार वर्तमान की ९०% बीमारियों का कारण हमारी आहार पद्धति है। रात्रिभोजन करने पर धार्मिक क्रिया, प्रतिक्रमण, शुभ ध्यानादि नहीं हो सकते। अज्ञानी पक्षी भी रात्रिभोजन नहीं करते, तब इस पाप को अनंत दुःख का मूल समझ कर मानव को भी रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए। आगम एवं आगमिक व्याख्या ग्रन्थों की दृष्टि से निषेध सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा अपनी त्रिकालवर्ती दृष्टि से सब कुछ जानते हैं, उन्हें वैज्ञानिकों की भाँति माइक्रोस्कोप, टेलीस्कोप या प्रयोगशालाओं की आवश्यकता नहीं होती। उन्होंने रात्रिभोजन को महापाप बताते हुए सर्वथा त्याज्य बताया है। वैज्ञानिक खोजों का तो रोज खंडन-मंडन होता रहता है, क्योंकि विज्ञान विकासशील है पर सर्वज्ञ - दृष्टि सम्पूर्णतया विकसित है। वह जो कुछ कहती है सर्वथा और सर्वदा के लिए सत्य होता है। जैन आगमों में भोजन के विषय में चार विकल्प बताये गये हैं - १. दिन में बनाया हुआ दिन में खाना, २ . दिन में बनाया हुआ रात में खाना, ३. रात में बनाया हुआ दिन में खाना, ४. रात में बनाया हुआ रात में खाना । इन चारों विकल्पों में से पहला विकल्प ही आचरण करने योग्य है। इससे सिद्ध होता है कि हमें अपना भोजन दिन में बनाकर दिन में ही कर लेना चाहिये । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) रात्रिभोजन करने में अनेक दोष हैं और रात्रि को भोजन बनाने में भी दोष है। अत: दिन का बनाया भोजन रात को नहीं खाना चाहिये और रात के समय भोजन बनाना भी नहीं चाहिये, इसलिये पूर्वोक्त तीनों विकल्प रात्रिभोजन दोष के अन्तर्गत होने से वर्जनीय हैं। दशवैकालिकसूत्र के तीसरे अध्ययन में ५२ अनाचीर्णों में पाँचवां अनाचीर्ण रात्रिभोजन बताया गया है अर्थात् रात्रिभोजन को अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार न कहकर अनाचार कहा है। पुनः प्रस्तुत सूत्र के चौथे अध्ययन में रात्रिभोजन-विरमण को छठा व्रत कहा है तथा प्राणातिपात-विरमण आदि पाँचों विरमणों को महाव्रत कहा है। दशवैकालिक के छठे अध्ययन में श्रमण जीवन के अठारह गुणों का उत्कीर्तन करते हुए रात्रिभोजन त्याग को महाव्रत के साथ सम्मिलित कर "वयछक्कं" छः व्रतों का उल्लेख किया है। उसमें पाँचों महाव्रतों के समान ही छठे रात्रिभोजन त्याग को भी महत्त्व दिया गया है। आठवें अध्ययन की २८वीं गाथा में तो साधुसाध्वी के लिए सूर्यास्त से सूर्योदय तक आहारादि पदार्थों के सेवन की मन से भी इच्छा नहीं करने का निर्देश दिया गया है, क्योंकि रात्रिभोजन विरमण व्रत के भंग से अहिंसा महाव्रत दूषित हो जाता है। एक महाव्रत के दूषित होने पर अन्य महाव्रतों के भी दूषित हो जाने की संभावना बनी रहती है। रात्रि में भोजन करने से अनेक सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा होती है, क्योंकि मनुष्य उन छोटे-छोटे प्राणियों को देख नहीं पाता जिनकी संख्या में अंधेरा होते ही अप्रत्याशित वृद्धि हो जाती है, इसके अलावा छोटे-छोटे जीव कुछ ऐसे होते हैं, जो रोशनी देखकर स्वत: Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9) आ जाते हैं और चिराग आदि की लौ पर जलकर मर जाते हैं अर्थात् रात्रि में भोजन करना हिंसा को बढ़ावा देना है। उत्तराध्ययनसूत्र' में श्रमण जीवन के कठोर आचार का निरूपण करते हुए स्पष्ट बताया है कि प्राणातिपातविरति आदि पाँच सर्वविरतियों के साथ ही रात्रिभोजन त्याग अर्थात् रात्रि में सभी प्रकार के आहार का वर्जन करना चाहिए और यह व्रत महाव्रतों की तरह ही दृढ़ता से पालन किया जाता है। महाव्रतों के अपवाद प्राप्त होते हैं पर रात्रिभोजनविरमण व्रत का कोई अपवाद नहीं है। रात्रिभोजन - विरमण व्रत महाव्रतों की सुरक्षा के लिए है । एतदर्थ ही महाव्रतों को मूलगुण और रात्रिभोजनविरमण को उत्तरगुण में गिना है। मूलगुण और उत्तरगुण के भेद को स्पष्ट करने के लिए ही प्राणातिपात विरमण आदि को महाव्रत और रात्रिभोजन - विरमण को व्रत कहा है। यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि श्रमण के लिए जैसे महाव्रत का पालन करना आवश्यक है उसी प्रकार रात्रिभोजन विरमण व्रत का पालन करना भी अनिवार्य है। रात्रिभोजन त्याग को अगस्त्यसिंहचूर्णि में मूलगुणों की रक्षा का हेतु बताया गया है। यही कारण है कि रात्रिभोजन- विरमण को मूलगुणों के साथ प्रतिपादित किया गया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य' में लिखा है कि रात्रिभोजन नहीं करने से अहिंसा महाव्रत का संरक्षण होता है। इससे वह समिति की भाँति उत्तरगुण है, पर श्रमण के लिए वह अहिंसा महाव्रत की तरह पालन करने योग्य है। इस दृष्टि से वह मूलगुण की कोटि में रखने योग्य है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) हम पाते हैं कि रात्रिभोजन त्याग जैन मुनियों का औत्सर्गिक व्रत है। किसी भी परिस्थिति में इस व्रत का खंडन नहीं किया जा सकता है। साथ ही रात्रिभोजन करने से अहिंसादि महाव्रतों का सम्यक्तया परिपालन भी नहीं हो सकता है। प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रन्थों की दृष्टि से निषेध वर्तमान जीवन शैली में रात्रिभोजन सभ्यता का प्रतीक बन गया है। यहाँ तक कि धार्मिक आयोजन भी इससे अछूते नहीं रह गए हैं। विडम्बना यह है कि जो रात्रिभोजन नहीं करता, उसे बैकवर्ड (पिछड़ा) माना जाता है। जहाँ 'अहिंसा परमो धर्मः' के उच्च संस्कार दिये जाते हैं ऐसे आराधना भवन, जैन भवन, आयंबिल भवन आदि स्थानों पर भी रात्रिभोजन का प्रचलन बढ़ गया है। जबकि जैन परम्परा में रात्रिभोजन किसी भी रूप में मान्य नहीं है। जैनाचार्यों ने कठोरता से इस बात का निषेध किया है। योगशास्त्र के तीसरे अध्याय में रात्रिभोजन के दोषों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि रात के समय निरंकुश संचार करने वाले प्रेत-पिशाच आदि अन्न जूठा कर देते हैं, इसलिये सूर्यास्त के पश्चात् भोजन नहीं करना चाहिये। रात्रि में घोर अंधकार होने से अवरुद्ध शक्तिवाले नेत्रों से भोजन में गिरते हुए जीव दिखाई नहीं देते हैं, अतः रात के समय भोजन नहीं करना चाहिये। रात्रिभोजन करने से होने वाले दोषों का वर्णन करते हुए कहा है कि जो दिन-रात खाता रहता है, वह सचमुच स्पष्ट रूप से सींग और पूँछ रहित पशु ही है। जो लोग दिन के बदले रात को ही खाते हैं, वे मूर्ख मनुष्य सचमुच हीरे को छोड़कर काँच को ग्रहण करते हैं। दिन के विद्यमान होते हुए भी जो अपने कल्याण की Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) इच्छा से रात में भोजन करते हैं वे पानी के तालाब (उपजाऊ भूमि) को छोड़कर ऊसर भूमि में बीज बोने जैसा काम करते हैं अर्थात् मूर्खतापूर्ण काम करते हैं। रात्रिभोजन से परलोक में विविध प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। जो रात्रि में भोजन करता है वह अगले जन्म में उल्लू, कौआ, बिल्ली, गिद्ध, शंबर, सूअर, सर्प, बिच्छू, गोह आदि की निकृष्ट योनि में जन्म ग्रहण करता है। अतः समझदार और विवेकी जनों को रात्रिभोजन का त्याग अवश्य करना चाहिए। जो भव्य आत्मा हमेशा के लिए रात्रिभोजन का त्याग करता है, उसकी आत्मा धन्य मानी गई है। रात्रिभोजन के त्यागी को आधी उम्र के उपवास का फल प्राप्त होता है। एक जगह लिखा गया है कि रात्रिभोजन में जो दोष लगते हैं, वे ही दोष (दिन के समय) अंधेरे में भोजन करने से लगते हैं और जो दोष अंधेरे में भोजन करने से लगते हैं, वे ही दोष सँकरे मुखवाले बर्तन में भोजन करने से लगते हैं। रात के समय अन्धकार में सूक्ष्म जीव दिखाई नहीं देते है इसलिये रात को बनाया भोजन दिन में ग्रहण करे तो भी वह रात्रिभोजन तुल्य ही माना गया है। रत्नसंचयप्रकरण में रात्रिभोजन करने से लगने वाले दोषों की चर्चा करते हुए कहा है कि छियानबे भव तक कोई मछुआरा सतत् मछलियों की हत्या करे, तो उसे जितना पाप लगता है; उतना पाप एक सरोवर सुखाने से लगता है। एक सौ आठ भव तक सरोवर सुखाने से जितना पाप लगता है, उतना पाप एक दावानल लगाने से लगता है। एक सौ एक भव तक दावानल लगाने से Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (12) जितना पाप लगता है; उतना पाप एक कुवाणिज्य (खोटा धंधा) करने से लगता है। एक सौ चवालीस भव तक कुव्यापार करने से जो पाप लगता है, उतना पाप किसी पर एक बार झूठा इल्जाम लगाने से लगता है। एक सौ इक्यावन भव तक झूठा दोषारोपण करने से जितना पाप लगता है; उतना पाप एक बार परस्त्रीगमन से लगता है। एक सौ निन्यानबे भव तक परस्त्रीगमन करने से जितना पाप लगता है; उतना पाप एक बार के रात्रिभोजन से लगता पं. आशाधर जी ने 'सागारधर्मामृत'१४ में रात्रिभोजन त्याग के विषय में लिखा है अहिंसाव्रत रक्षार्थ मूलव्रत विशुद्धये । नक्तं भुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धीरस्त्रिधा त्यजेत् ।। अर्थात् अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए एवं मूलगुणों को निर्मल करने के लिए धीर व्रती को मन-वचन-काय से जीवन पर्यन्त के लिए रात्रि में चारों प्रकार के भोजन का त्याग करना चाहिए। चार प्रकार के आहार कौन-कौन से हैं? इसे समन्तभद्रस्वामी ने अपनी कृति 'रत्नकरण्डकश्रावकाचार१५ में स्पष्ट किया है। अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिभक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः ।। जो जीवों पर दयालु चित्त होता हुआ रात्रि में अन्न-दाल, भात कचौड़ी, पूड़ी आदि, पान-पानी, दूध, शर्बत आदि, खाद्यलड्डू आदि और लेह्य-रबड़ी, मलाई, चटनी आदि पदार्थों को नहीं खाता है, वह रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमाधारी श्रावक है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 13 ) १६ आचार्य अमृतचन्द ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय नामक कृति में रात्रिभोजन के विषय में दो आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं। प्रथम तो यह कि दिन की अपेक्षा रात्रि में भोजन के प्रति तीव्र आसक्ति रहती है और रात्रिभोजन करने से ब्रह्मचर्य - महाव्रत का निर्विघ्न पालन संभव नहीं होता। दूसरे रात्रिभोजन के पकाने अथवा प्रकाश के लिये जो अग्नि या दीपक प्रज्वलित किया जाता है, उसमें भी अनेक जन्तु आकर मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं तथा भोजन में भी गिर जाते हैं अतः रात्रिभोजन हिंसा से मुक्त नहीं है। आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार १७ में रात्रिभोजन - विरमण को पंच महाव्रतों की रक्षा के लिए आवश्यक माना है। इसी प्रकार भगवती आराधना में भी श्रमणों के लिए रात्रिभोजन - विरमण व्रत का पालन आवश्यक माना गया है। १८ दिगम्बर परम्परा के आचार्य देवसेन", चामुण्डराय, वीरनन्दी " सभी ने रात्रिभोजन त्याग को महाव्रतों की रक्षा के लिए आवश्यक मानते हुए उसे छठा अणुव्रत माना है। कितने ही आचार्यों ने रात्रिभोजनविरमण को अणुव्रत न मानकर उसे अहिंसा व्रत की भावना के अन्तर्गत माना है। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक २३, विद्यानन्द " और श्रुतसागर " सभी के यही मत हैं। भले ही तत्त्वार्थसूत्र के सभी व्याख्याकार रात्रिभोजन - विरमण व्रत को छठा व्रत या अणुव्रत न मानें, तथापि सभी ने रात्रिभोजन के दोषों का निरूपण किया है और इस बात पर बल दिया है कि रात्रिभोजन श्रमण के लिए सर्वथा त्याज्य है। २५ Jajn Education International २० Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (14) जैनेतर ग्रन्थों की दृष्टि से रात्रिभोजन निषेध जैन परम्परा में तो रात्रिभोजन-वर्जन का स्पष्ट आदेश है ही, किन्तु वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी रात्रिभोजन का निषेध किया गया है। 'मार्कण्डेयपुराण' में मार्कण्डेय ऋषि ने रात्रिभोजन को मांसाहार के समान कहा है रात्रौ अन्नं मांस समं प्रोक्तम् मार्कण्डेय महर्षिणा । जैनेतर ग्रन्थों में नरक के चार द्वार बताये गये हैं१. रात्रिभोजन, २. परस्त्रीगमन, ३. अचार भक्षण और ४. अनन्तकाय का भक्षण। इन चार द्वारों में रात्रिभोजन को प्रथम स्थान पर रखा है।२६ महाभारत में कहा है कि जो लोग मद्यपान करते हैंशराब पीते हैं, मांसाहार- मांस, मछली, अण्डे का भक्षण करते हैं, रात को भोजन करते हैं और कन्दमूल-अनन्तकाय का भक्षण करते हैं उनकी तीर्थयात्रा जप-तप आदि अनुष्ठान निष्फल होते हैं। यजुर्वेद में वर्णन है कि हे युधिष्ठिर! देव हमेशा दिन के प्रथम प्रहर में भोजन करते हैं, ऋषि-मुनिजन दिन के दूसरे प्रहर में भोजन करते हैं, पितर लोग तीसरे प्रहर में भोजन करते हैं और दैत्य दानव यक्ष, एवं राक्षस संध्या के समय भोजन करते हैं इन सभी देवादि के भोजन का समय जानकर भी जो रात्रिभोजन करता है, वह अनुचित करता है। रात्रिभोजन वास्तव में अभोजन है। योगवासिष्ठ में कहा गया है कि विशेषत: चातुर्मास में जो रात्रिभोजन का त्याग करता है, उसके इहलोक और परलोक में सभी मनोरथ पूरे होते हैं। सामान्य दिन में पाप नहीं करना और | Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (15) चौमासे में विशेष पाप का त्याग और आराधना करना ऐसा अन्य दर्शन भी बताते हैं। जैन दर्शन बताता है कि चातुर्मास के समय में विशेष जीवों की उत्पत्ति होती है इसलिये चौमासे में विशेष अभिग्रह धारण करना चाहिये। स्कंदपुराण में उल्लेख है कि जो प्रतिदिन एक बार भोजन करता है, वह अग्निहोत्र का फल प्राप्त करता है और जो सूर्यास्त के पूर्व ही भोजन कर लेता है उसे घर बैठे तीर्थयात्रा का फल प्राप्त होता है। जिस तरह स्वजन और सम्बन्धियों की मृत्यु होने पर मनुष्य को सूतक लगता है तो फिर सूर्य के अस्त होने पर भोजन किस तरह कर सकते हैं ? अत: सूर्यास्त के बाद रात्रिभोजन कदापि करने योग्य नहीं है।३१ मज्झिमनिकाय के कीटागिरिसूत्र में कहा गया है किएक समय बड़े भारी भिक्षु संघ के साथ भगवान् काशी (जनपद) में चारिका करते थे। वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को आमंत्रित किया और कहा 'भिक्षुओं! मैं रात्रिभोजन से विरत हो भोजन करता हूँ। रात्रिभोजन छोड़कर भोजन करने से आरोग्य, उत्साह, बल, सुखपूर्वक विहार का अनुभव करता हूँ। आओ, भिक्षुओं! तुम भी रात्रिभोजन विरत हो भोजन करो, रात्रिभोजन छोड़कर भोजन करने से तुम भी उनका अनुभव करोगे।' इस प्रकार वैदिक एवं बौद्ध परम्परा में भी रात्रिभोजन का निषेध किया गया है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) आध्यात्मिक लाभ की दृष्टि से निषेध आध्यात्मिक दृष्टि से रात्रिभोजन त्यागना बहुत बड़ा तप का लाभ माना गया है। रात्रिभोजन त्याग की महत्ता बताते हुए ज्ञानी पुरुषों ने लिखा है- “जो श्रेष्ठ बुद्धि वाले विवेकी मनुष्य रात्रिभोजन का सदैव के लिये त्याग करते हैं, उनको एक माह में १५ दिन के उपवास का फल प्राप्त होता है।"३३ यह समझने की बात है कि रात्रिभोजन त्यागने से बिना किसी कष्ट के सहज रूप से १५ दिन की तपस्या का फल मिल जाता है। इसके अतिरिक्त रात्रिभोजन का त्याग करने से प्रमाद, आलस्य, सुस्ती आदि दोष भी दूर होते हैं। अप्रमत्तता, जागरूकता, सक्रियता का विकास होता है, आत्मा पुष्ट बनती है, धार्मिक आराधनाएँ सम्यक् प्रकार से सम्पन्न होती हैं। इस प्रकार रात्रिभोजन त्याग से कई आध्यात्मिक लाभ प्रत्यक्ष में दिखाई देते हैं। रात्रिभोजन त्याग का पालन करने से कर्मों की निर्जरा, गहरी निद्रा, धर्माराधना, नीरोगता, दीर्घायु आदि लाभ सहज में प्राप्त होते हैं। जो लोग रात्रिभोजन नहीं करते हैं वे सायंकालीन प्रतिक्रमण भी कर सकते हैं। इतना ही नहीं, रात्रि में सोने से पूर्व प्रभुभक्ति, ध्यान आदि में भी मन लगता है। पारिवारिक सदस्यों को भी सायंकालीन व रात्रिकालीन धार्मिक क्रियाओं से वंचित नहीं रहना पड़ता है। ___इस प्रकार जैन धर्म में रात्रिभोजन का जो निषेध है उसके पीछे आरोग्य की दृष्टि भी है, अहिंसा की दृष्टि भी है और तप की दृष्टि भी है। तीनों ही दृष्टियों से रात्रिभोजन त्याज्य है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (17) यौगिक विकास की दृष्टि से निषेध आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में योग-साधना की दृष्टि से रात्रिभोजन का निषेध किया है। यौगिक क्रिया करने वाले साधकों ने मानव के शरीर के विभिन्न अंगों को कमल की उपमा दी है, जैसे मुखकमल, नेत्रकमल, हृदयकमल, नाभिकमल, चरणकमल आदि। इस प्रकार हमारे शरीर रूपी सरोवर में चारों ओर कमल ही कमल हैं। जिस तरह कमल सूर्योदय होने पर खिलते हैं व सूर्यास्त होने पर मुरझा जाते हैं उसी तरह हमारे शरीर रूपी सरोवर में स्थित सभी कमल सूर्योदय के साथ सक्रिय होते हैं व सूर्यास्त के साथ उनकी सक्रियता निर्बल हो जाती है। अतः जब कमल सक्रिय हो उस समय किया गया भोजन ही सुपाच्यकर होता है साथ ही बलवर्धक एवं शक्तिकारक भी होता है। तब ऐसी स्थिति में की गई योग-साधना सिद्धिफल को प्रदान करने वाली होती है। ध्यान-साधना करने के लिए तन और मन दोनों ही शांत और स्वस्थ होने चाहिए। रात्रिभोजन का त्याग आमाशय और पाचनतंत्र को हल्का रखता है, जिससे मस्तिष्क भारमुक्त रहता है। जबकि रात्रिभोजन से वायु दोष, अजीर्ण, अपच आदि होने की अधिक संभावना रहती है। फलस्वरूप योग आदि में मन जुड़ना मुश्किल होता है। अहिंसा लाभ की दृष्टि से निषेध यदि अहिंसा की दृष्टि से विचार करते हैं तो रात्रिभोजन अनावश्यक जीव हिंसा का कारण प्रतीत होता है। पहला दोष यह है कि अंधकार में भोजन किया ही नहीं जा सकता, उसके लिए दीपक, मोमबत्ती या बिजली का प्रकाश करना ही पड़ता है। उस Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 18 ) प्रकाश में स्वयं अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव आकर्षित होकर आ जाते हैं, जो भोजन में अपने आप गिरते रहते हैं। अनेक जीव , तो इतने सूक्ष्म होते हैं तथा उनका रंग भोज्य पदार्थ के रंग का ही होने से पता भी नहीं चलता और वे हमारे खाद्य-पदार्थों में मिलकर अनचाहे ही हमारे पेट में चले जाते हैं, पेट इन जीवों का कब्रिस्तान बन जाता है। दूसरा दोष यह है कि रात्रिभोजी क्रूर, हिंसक, कठोर एवं निष्ठुर परिणामी होने लगता है। उसके हृदय से करुणा, दया, मैत्री आदि की भावनाएँ विलीन होने लगती हैं। वह स्वर्ग-नरक, पुण्यपाप आदि का निषेध करने लगता है। जिनवाणी के प्रति रही हुई आस्था एवं श्रद्धा मंद होने लगती है। जो लोग रात्रि को भोजन करने वाले हैं। उनके लिये अक्सर रात को भोजन बनता है। रात में गैस चूल्हों में छिपे जन्तु अकारण ही मर जाते हैं। आजकल यह तर्क दिया जाता है कि बिजली के प्रकाश से दिन की तरह प्रकाश हो जाता है, अतः जीव जन्तु आसानी से दिखाई देते हैं। वास्तव में देखा जाये तो अनेक जीव-जन्तु जो दिन में निष्क्रिय रहते हैं वे रात में सक्रिय होते हैं तथा अनेक जीव-जन्तु विद्युत, दीपक आदि के प्रकाश के कारण ही पैदा होते हैं। इस तरह रात को भोजन बनाने एवं करने के कारण अनेक निरपराध जीव काल ग्रास हो जाते हैं। इस प्रकार रात्रिभोजन करने से स्पष्टत: हिंसा का पाप लगता है। यह बात जानने जैसी है कि मर्यादित काल के बाद खाद्य पदार्थों में अक्सर खाद्य सामग्री के रंग के ही कीटाणु उत्पन्न हो जाते हैं, उन्हें रात में देखना व उनसे रात में बचना बड़ा कठिन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 19 ) होता है। कभी-कभी तो विषैले कीटाणुओं के कारण हिंसा के अलावा अपने प्राणों से भी हाथ धोना पड़ जाता है एवं अनेक रोगों का अकारण ही शिकार होना पड़ता है। तीसरा दोष यह है कि रात का समय तमस् (अंधकार) का समय होता है, अतः सात्त्विक से सात्त्विक आहार भी रात के समय में तामसिक बन जाता है। तामसिक आहार के सेवन से क्रोध, हिंसा, भय, घृणा, चंचलता आदि विकारों से मानव ग्रसित होकर पतन की राह पर भटक जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से निषेध आधुनिक चिन्तकों का तर्क है कि आगम और आगमेतर साहित्य में रात्रिभोजन - विरमण व्रत के सम्बन्ध में जिन दोषों की सूची प्रस्तुत की गई है उनमें से बहुत से दोष अन्धकार के कारण होते हैं । अन्धकार में जीव-जन्तु आदि दिखाई नहीं देते, पर आज विज्ञान की अपूर्व देन से हमें विद्युत उपलब्ध है। विद्युत के तीव्र आलोक में सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु भी सहज रूप से देखी जा सकती है इसलिए जहाँ तक देखने का प्रश्न है वहाँ विद्युत ने उसका हल कर दिया है। अतः जीव-जन्तु के भक्षण का अब प्रश्न ही नहीं रहता। आगम और आगमेतर साहित्य में जन्तु आदि की विराधना की जो बात बताई गई है, वह स्थूल है और प्रत्येक व्यक्ति को समझ में आ सकती है। हमारी दृष्टि से सूर्य के प्रकाश में जो विशेषता है वह विशेषता विद्युत के प्रकाश में नहीं है। चाहे वह कितना ही तीव्र और चमचमाता हुआ क्यों न हो। हीरे आदि जवाहरात Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) का परीक्षण विद्युत प्रकाश में नहीं होता, उसका परीक्षण तो सूर्य की रोशनी में ही होता है। सूर्य की रोशनी में ही कमल विकसित होते हैं, विद्युत प्रकाश में नहीं। सूर्योदय होते ही प्राणवायु की मात्रा बढ़ जाती है। प्राणवायु श्रम करने के लिए आवश्यक है। रात्रि में प्राणवायु की मात्रा कम हो जाती है और कार्बन-डाइ-आक्साइड की मात्रा बढ़ती है जिसके कारण पेड़-पौधों को लाभ मिलता है, पर मानवों को उससे लाभ नहीं मिलता। जैसे रात्रि होने पर कमल के फूल सिकुड़ने लगते हैं वैसे ही रात्रि में मानव का पाचन संस्थान भी सिकुड़ने लगता है। पाचन के लिए प्राणवायु आवश्यक है। कार्बन-डाइ-आक्साइड के कारण पाचन कार्य में कठिनता होती है। इसके अतिरिक्त अब तो वैज्ञानिक खोजों से स्पष्टतः निश्चित हो गया है कि सूर्य किरणों में Infra-red तथा Ultra-violet दो प्रकार की किरणें होती हैं। इनमें से एक प्रकार की किरणें वातावरण में उपस्थित सूक्ष्म जीव राशि का विनाश करती हैं, यह लाभ रात्रि के समय नहीं मिल पाता। अत: वैज्ञानिक दृष्टि से भी रात्रिभोजन उचित नहीं है।३४ जहाँ तक धर्म की बात है, वहाँ रात्रिभोजन को हिंसा आदि कारणों से निषिद्ध बताया है। चिकित्सा शास्त्रियों का अभिमत है कि कम से कम सोने के तीन घंटे पूर्व तक भोजन अवश्य कर लेना चाहिये। जो लोग रात्रिभोजन करते हैं, वे भोजन के तुरन्त बाद सो जाते हैं, जिससे उनके शरीर में अनेक रोगों का जन्म होता है। दूसरी बात यह है कि सूर्यप्रकाश में केवल प्रकाश ही नहीं होता, अपितु जीवनदायिनी शक्ति भी होती है। सूर्यप्रकाश से हमारे पाचन तंत्र का गहरा सम्बन्ध है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 21 ) भारतीय आयुर्वेद का अभिमत है कि “शरीर में दो मुख्य कमल होते हैं - १. हृदयकमल और २. नाभिकमल। सूर्यास्त हो जाने पर ये दोनों कमल संकुचित हो जाते है, अतः रात्रिभोजन निषिद्ध है। इस निषेध का तीसरा कारण यह भी है कि रात्रि में पर्याप्त प्रकाश न होने से छोटे-छोटे जीव भी खाने में आ जाते हैं।२५ जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश पाकर कमलदल खिल जाते हैं तथा उसके अस्त होते ही सिकुड़ जाते हैं, उसी प्रकार जब तक सूर्य का प्रकाश रहता है, तब तक उसमें रहने वाली सूर्य किरणों के प्रभाव से हमारा पाचन-तंत्र ठीक काम करता है, उसके अस्त होते ही उसकी गतिविधि मंद पड़ जाती है, जिससे अनेक रोगों की संभावनाएँ बढ़ जाती है। अतः रात्रिभोजन करना किसी भी स्थिति में हितकर नहीं है। रात्रि में भोजन करने से विश्राम में बाधा उपस्थित होती है। हम समझते हैं कि गले के नीचे भोजन उतर जाने से समस्या का समाधान हो गया अर्थात् खाने का समाधान हो गया। पर भोजन करने में जितना श्रम होता है उससे अधिक श्रम भोजन के पाचन में होता है। शरीर-यन्त्र भोजन-पाचन में लग जाता है; जिसके कारण शरीर को बाहर से नहीं, अन्दर से श्रम करना पड़ता है। जो लोग रात्रि में भोजन करते हैं उन्हें जैसी चाहिए वैसी गहरी निद्रा नहीं आती। या तो रात्रि में इधर-उधर करवटें बदलते रहते हैं या स्वप्न संसार में गोते लगाते हैं। निद्रा की इस अस्त-व्यस्तता और अराजकता का मूल कारण पेट में पड़ा हुआ आहार है। जो रात्रि में भोजन नहीं करते हैं उनकी पाचन क्रिया ठीक रहती है और वे जब प्रात: उठते हैं उस समय उनके चेहरे पर तरोताजगी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (22) होती है क्योंकि भोजन करके सो जाने पर शरीर की सारी ऊर्जा भोजन पचाने में ही व्यय हो जाती है। जब किया हुआ भोजन नहीं पचता तो विविध प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रुग्ण व्यक्ति न आत्म-साधना कर सकता है, न ज्ञान-साधना कर सकता है और न ध्यान-साधना ही कर सकता है। इस दृष्टि से रात्रि का भोजन स्वास्थ्य के लिए अहितकर है। कुछ लोगों का तर्क है कि यदि रात्रि को आर्द्र आहार के स्थान पर सूखा आहार लिया जाये तो पाचन की उतनी समस्या नहीं होगी, किन्तु सूखे पदार्थ के उपयोग की बात भी अनुचित है। क्योंकि जब रात्रि में चारों प्रकार के आहार में से कोई भी आहार ग्राह्य नहीं है तो सूखे पदार्थ ग्राह्य कैसे हो सकते हैं? सूखे पदार्थों का आहार भी पाचन के लिए भी वैसा ही है जैसा आर्द्र पदार्थ का आहार। प्रकृति और पर्यावरण की दृष्टि से निषेध प्रकृति की दृष्टि से भी रात्रिभोजन त्याज्य है। सामान्य रूप से चिड़िया, कबूतर, तोता, कौआ आदि पक्षी संध्या होने के साथ ही अपने-अपने घोंसलों में चले जाते हैं। ये पक्षी सूर्यास्त के बाद न तो दाना चुगते हैं और न ही जल पीते हैं और न ही रात के समय उड़ते हैं। प्रातः सूर्योदय होने पर ही वे दाना-पानी चुगने निकलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि दिन में भोजन और रात में विश्राम यही प्रकृति का सहज क्रम है। रात को या तो हिंसक पशु अपना शिकार ढूँढने निकलते हैं या फिर आधुनिक वातावरण में रहने वाले शहरी पशु ही रात को खाते हैं। मनुष्य के लिये प्राकृतिक Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (23) एवं स्वाभाविक नियम यही है कि वह रात में विश्राम करे, भजनभक्ति, ध्यान आदि में रहे और दिन में श्रम करे। __जैन परम्परा में रात्रिभोजन निषेध की जो मान्यता है, वह प्रदूषण मुक्ति की दृष्टि से उचित मान्यता है, वस्तुतः रात्रिभोजन का सेवन न करने से प्रदूषित आहार शरीर में नहीं पहुँचता और स्वास्थ्य की रक्षा होती है। सूर्य के प्रकाश में जो भोजन पकाया और खाया जाता है, वह जितना प्रदूषण मुक्त एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है, उतना रात्रि के अंधकार या कृत्रिम प्रकाश में पकाया गया भोजन नहीं होता है। जैन धर्म ने रात्रिभोजन निषेध के माध्यम से पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य दोनों के संरक्षण का प्रयत्न किया है। दिन में भोजन पकाना और खाना उसे प्रदूषण से मुक्त रखना है क्योंकि रात्रि में एवं कृत्रिम प्रकाश में भोजन में विषाक्त सूक्ष्म प्राणियों के गिरने की संभावना प्रबल होती है। पुनः देर रात में किये भोजन का परिपाक भी सम्यक् रूपेण नहीं होता है। दूसरा कारण यह है कि दिन का वातावरण कीटाणु रहित होने से विशुद्ध होता है। सूर्य-प्रकाश के कारण वातावरण में शुद्धता अधिक होती है। पेड़-पौधे दिन में श्वासोच्छ्वास की क्रिया द्वारा आक्सीजन (प्राणवायु) छोड़ते हैं। अतः आक्सीजन युक्त हवा अधिक शुद्ध होती है। रात के समय हवा में प्राणवायु (आक्सीजन) का परिमाण कम हो जाता है और कार्बन डाइ-आक्साइड आदि का परिमाण बढ़ जाता है इसलिये रात के समय वातावरण अशुद्ध होता है। अशुद्ध वातावरण में भोजन करने से स्वास्थ्य बिगड़ जाता है इसलिये रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिये और दिन के शुद्ध वातावरण में ही भोजन करना चाहिये। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 24 ) पारिवारिक लाभ की दृष्टि से निषेध मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य नर से नारायण की प्राप्ति है, जिसके लिये आत्म-चिन्तन, ध्यान, स्वाध्याय आदि करना आवश्यक है। उन सभी सत्प्रवृत्तियों के लिये उचित समय एवं स्थान की अनुकूलता होना भी परमावश्यक है। शांत और एकांत वातावरण का होना भी जरूरी है। जिस घर में रात्रिभोजन न होता हो, वहाँ महिलाओं को रसाईंघर से जल्दी छुट्टी मिल जाती है और धार्मिक आराधना के लिये उचित समय भी मिल जाता है। दूसरी बात, जिन घरों में दिन में भोजन बनता है, वहाँ जैन संतों को भी भिक्षा का सहज लाभ मिल जाता है। इससे गृहस्थ परिवारों को सामाजिक कार्यों के लिये भी अधिक समय मिल सकता है। परिवार के संग आप आमोद-प्रमोद हेतु आसानी से भागीदार हो सकते हैं। तीसरा लाभ यह है कि जल्दी खाने एवं जल्दी सोने से प्रातः जल्दी उठना होता है, जो आत्म-साधना, स्वास्थ्य एवं स्वाध्याय के लिये सर्वोत्तम समय माना जाता है अतः पारिवारिक दृष्टि से भी रात्रिभोजन का त्याग किया जाना गुणकारी है। स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से निषेध सूर्य के प्रकाश में भोजन का निर्माण कर उसी प्रकाश में जो उसका आसेवन (भोजन) करता है, वह अनेक बीमारियों से बचता है। लेकिन वर्तमान में वह इस बात को भुला कर अपने आपको रोगग्रस्त एवं कर्मों के बंधनों में बाँधने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित कर रहा है। अस्पतालों में बढ़ती भीड़ इसका प्रतिफल है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (25) रात्रिभोजन का त्याग करना इसलिए भी अनिवार्य है कि इससे अनेक सूक्ष्म जीवों की हिंसा का पाप लगता है एवं अपने उदर में सुषुप्तावस्था में रहे तंत्र को काम करना पड़ता है। भोजन के बाद जो समय पानी पीने के लिये चाहिये; वह भी नहीं रह पाता है अत: पाचन क्रिया पूर्णतः नहीं हो पाती है। __अन्न के साथ जल की मात्रा पूरी नहीं होने से उदर की क्रियाशीलता भी मंद हो जाती है। इससे जीवन में रुग्णता की स्थिति भी बनती है। जबकि दिन में सूर्य की प्रचंड गर्मी एवं उसकी रश्मियाँ देहधारी के शरीर में उष्णता के साथ-साथ रक्त शुद्धिकरण में भी सहायक होती हैं। इसलिए तो कहा गया है कि दिन में बनाओ, दिन में खाओ'। इस तरह शारीरिक स्वास्थ्य के लिये भी रात्रिभोजन का त्याग करना आवश्यक है। रात्रिभोजन करने से पेट की गड़बड़ी, आँख, कान, नाक, दिमाग, दाँत की गड़बड़ी, अजीर्ण इत्यादि रोगों की संभावनाएँ बढ़ती हैं। एक बात और है कि हृदय कमल अधोमुखी है और नाभिकमल ऊर्ध्वमुखी है। ये दोनों सूर्यास्त के बाद संकुचित हो जाते हैं, इसलिए भी रात्रिभोजन नहीं करना चाहिये। भोजन और शरीर का पारस्परिक गहरा सम्बन्ध है। सुयोग्यकाल में किया गया भोजन स्वास्थ्य के लिये कल्याणकारी होता है। जैन-जैनेतर सभी दर्शनों ने भोजन के लिये दिन के समय को सर्वोत्तम एवं सुयोग्य माना है, क्योंकि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के बीच के काल में सूर्य की किरणों से जो तत्त्व फैलते हैं, वे पाचन क्रिया को सक्रिय बनाने में सहायक होते हैं, क्योंकि सूर्य की ऊर्जा से तेजस् केन्द्र Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (26) (भोजन पचाने वाला केन्द्र) सक्रिय होता है, जिससे भोजन आसानी से पच जाता है। जबकि रात में किया हुआ भोजन बराबर पच नहीं पाता है। अपच में भोजन की निरन्तरता बनाये रखने से शरीर अनेक अवांछित व्याधियों का शिकार हो जाता है। हम देखते हैं कि वर्षाकाल में अनेक बार आठ-दस दिन सूर्य के प्रकाश का अभाव हो जाता है, उन दिनों में अग्निमांद्य, अपच आदि की शिकायतें हो जाती हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सूर्य ऊर्जा का आहार पाचन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। रात्रिभोजन से अनिद्रा, उच्चरक्तचाप, हृदयरोग, दमा, अग्निमांद्य, चिड़चिड़ा स्वभाव आदि बीमारियों का प्रकोप होने की संभावनाएँ अधिक रहती हैं तथा इन बीमारियों के होने के बाद इनसे शीघ्र राहत पाना भी कठिन होता है। सूर्योदय के साथ फैली हुई सूर्य की ऊर्जा व ऊष्मा के कारण सहनशक्ति, पाचनशक्ति, रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति विकसित होती है। आज तो सूर्य के माध्यम से अनेक चिकित्साएँ हो रही हैं। सूर्य किरण चिकित्साओं से विकट से विकट बीमारियों का निवारण हो रहा है। क्षय रोगी के कपड़ो में व्याप्त कीटाणु जो गर्म पानी में उबालने पर भी नष्ट नहीं होते हैं, वे सूर्य की आतापना से नष्ट हो जाते हैं। अतः सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त से पूर्व का काल ही भोजन के लिये सब प्रकार से उचित व प्रामाणिक काल है। रात में भोजन करने से विद्युत आदि का अनावश्यक व्यय होता है तथा अगर कभी विद्युत अवरुद्ध हो तो मोमबत्ती, लालटेन से काम चलाना पड़ता है। बिजली की रोशनी में काम करने के अभ्यासी लालटेन-मोमबत्ती में साफ नहीं देख पाते हैं। अतः कीटपतंगें आदि भोजन सामग्री के माध्यम से खाने में आ सकते हैं Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (27) जिसके कारण कभी-कभी गंभीर बीमारियाँ हो जाती हैं तथा विषैले जन्तुओं के कारण प्राणों से भी हाथ धोना पड़ सकता है। आचार्य हेमचन्द्र ने रात्रिभोजन से होने वाले तात्कालिक दुष्परिणामों की चर्चा करते हुए कहा है कि रात्रि में भोजन करने से उसमें बहुत से जीव गिर जाते हैं और उन जीवों का भक्षण होने से हमारे शरीर एवं मन को कई प्रकार से आघात पहुँचता है। जैसे१. अंधकार में यदि भोजन के साथ चींटी आ जाती है तो बुद्धि नष्ट होती है। २. यदि भोजन में मक्खी आ जाती है तो तत्काल वमन हो जाता है। ३. चूँ-भक्षण से जलोदर जैसा भयंकर रोग पैदा हो जाता है। ४. यदि भोजन में मकड़ी आ जाए तो कुष्ट महाव्याधि उत्पन्न हो जाती है। ५. यदि केश मिश्रित आहार खाने में आ जाए तो स्वर भंग हो जाता है और गला बैठ जाता है। ६. कांटा, कील, लकड़ी का टुकड़ा भोजन के साथ गले में अटक जाये तो मृत्यु की संभावना भी बनती हैं।२६ इस प्रकार रात्रिभोजन में अनेक तरह के प्रत्यक्ष रोग और दोष रहे हुए हैं। अतः अपने स्वास्थ्य के प्रति सावधान व्यक्ति को रात्रिभोजन का त्याग अवश्यमेव करना चाहिये। प्राचीन काल में रात्रिभोजन त्याग जैनत्व की एक पहचान थी कि जैन वही है जो रात्रि में भोजन नहीं करता, किन्तु आज Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (28) ऐसा नहीं है, आज जैनेतर एवं स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहने वाले सभी लोग रात्रिभोजन का त्याग करते हैं। रात्रिभोजन से स्वास्थ्य प्रतिकूल होने पर चिकित्सा के लिये समय, पैसे आदि का दुरुपयोग होता है व दैनिक कार्य की व्यवस्था में बाधा आती है। अत: रात्रिभोजन में स्वास्थ्य, समय, पैसे आदि सब की हानि ही होती है, लाभ तो लेशमात्र भी दिखाई नहीं देता है। अत: प्रत्येक दृष्टि से रात्रिभोजन का निषेध सर्वथा युक्ति युक्त है। चिकित्सा की दृष्टि से निषेध एक प्रचलित कहावत है कि- पेट को नरम, पांव को गरम, सिर को रखो ठंडा'। जो पेट को नरम रखता है, सिर को ठंडा रखता है, अर्थात् गुस्सा नहीं करता है और पांव को गरम रखता है अर्थात् रक्तसंचार को नियमित रखता है उसे कभी भी डॉक्टर के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। आजकल व्यक्ति पेट को नरम और लाइट रखने के बदले टाईट रखने लगे हैं। भूख के बिना भी दिनभर खाते रहना, मन की तृप्ति के लिये कुछ न कुछ चबाते रहना, शरीर की आवश्यकता से अधिक भोजन पेट में डालते रहना, पेट को नरम रखने के बजाय कठोर रखने के कार्य है। जहाँ पेट नरम नहीं रहता है वहाँ पांव गरम नहीं रह सकते हैं और सिर भी ठंडा नहीं रह सकता है क्योंकि रक्तचाप असामान्य हो जाता है। पेट में ढूंस-ठूस कर खाद्य पदार्थ डालने से उदर सम्बन्धी कई रोग पैदा हो जाते हैं। हम देखते हैं कि जब व्यक्ति रोगग्रस्त Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (29) रहता है उस समय उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन, उत्तेजना, आवेग आदि दोष स्वाभाविक रूप से पनप उठते हैं, जिससे व्यक्ति का दिमाग हमेशा गरम रहता है। उक्त तीनों ही बातें परस्पर में एकदूसरे से सम्बन्धित एवं एक दूसरे के पूरक हैं। यदि पेट नरम रहने लगे तो सिर स्वतः ठंडा रहने लग जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि आहार को संयमित, सात्त्विक एवं मर्यादित मात्रा में ग्रहण करना कितना आवश्यक है। आयुर्वेद के सिद्धान्त के अनुसार रात्रिभोजन पूर्ण हानिकारक है, क्योंकि भोजन करने के बाद तीन घंटे तक सोना नहीं चाहिये। जबकि रात्रिभोजी तो अक्सर भोजन के पश्चात् शीघ्र ही सो जाते हैं; इससे पर्याप्त पानी नहीं पी पाते हैं। सोने से पाचन तन्त्र मंद होने के कारण भोजन पूर्ण रूप से एवं शीघ्र पच नहीं पाता, उसका रस नहीं बन पाता। अतः रात्रिभोजन से अकारण ही पेट की अनेक व्याधियाँ हो सकती हैं। पेट की व्याधि के कारण आँख, कान, नाक, सिर आदि की बीमारियाँ आने में समय नहीं लगता है। एक बात यह भी है कि सूर्य के प्रकाश में सूक्ष्मजीवों की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सूर्य का प्रकाश सूक्ष्मजीवों के लिये अवरोधक तत्त्व है। इस दृष्टि से बड़े-बड़े ऑपरेशन हमेशा दिन के समय में ही होते है। दूसरी बात यह उल्लेखनीय है कि भोजन के पाचन के लिये जरूरी ऑक्सीजन का प्रमाण सूर्य की उपस्थिति में मिलता है। __ सारतः शारीरिक एवं चिकित्सक दृष्टि से भी रात्रिभोजन करना महान् हानिकारक है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (30) रात्रि में भोजन पकाने सम्बन्धी दोष रात्रि में भोजन बनाते समय दीवार आदि के सहारे रहे हुए जीवों की हिंसा होती है और ज्योति के प्रकाश में भी अन्य अनेक जीवों की हिंसा होती है। कभी खाना बनाते समय बिजली चली जाये तो अंधेरे आदि में स्वयं को शारीरिक नुकसान भी हो सकता है। उस स्थिति में हम सरकारी अधिकारियों को जैसे-तैसे भी बोल देते हैं, उससे १८ पापस्थान सम्बन्धी कई पापों का बंधन हो जाता है। ___ यह अनुभव सिद्ध है कि विद्युत् के प्रकाश में छोटे-छोटे जीव-जन्तु बिल्कुल दिखाई नहीं देते हैं, किसी चीज को साफ करके बनाना हो तो अंधेरे के कारण उसमें रहे हुए घुन, छोटे सफेद कीड़े आदि यूं ही हमारे पेट को कब्रिस्तान बना डालते हैं जिससे शारीरिक-मानसिक कई रोग पैदा हो जाते हैं और धार्मिक दृष्टि से घने कर्मों का बन्धन होता है। इसलिये रात्रि में भोजन भी नहीं बनाना चाहिये। रात्रि में खाने सम्बन्धी दोष रात्रिभोजन करना प्रायः सभी दृष्टियों से नुकसानदायी है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि सूर्य प्रकाश में और दीपक के प्रकाश में बहुत बड़ा अन्तर है। सूर्य के प्रकाश में अनेक प्रकार के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, जबकि रात के समय दीपक के चारों ओर कीटपतंगें मंडराने लगते हैं। सूर्य का प्रकाश कीट-पतंगों को दूर भगाता है, तो दीपक का प्रकाश दोनों को नजदीक लाता है इसलिये जीवदया पालन करने वाले अहिंसा प्रेमियों को रात्रिभोजन का त्याग अवश्यमेव करना चाहिये। रात्रिभोजन में बहुत आरम्भ है और जैन Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (31) दृष्टि से अत्यधिक आरम्भ-सभारम्भ करने वाला जीव नरकगामी होता है इसलिये रात्रिभोजन को नरक का प्रथम द्वार कहा गया है। जो मानव अल्प आरम्भी होता है वह नरकगति को प्राप्त नहीं होता है। इसलिये पाप से डरने वालों को एवं उत्तम प्रकार के साधकों को कम से कम रात्रि को चौविहार और दिन को नवकारसी का पच्चक्खाण अनिवार्यतः करना चाहिये। यह ज्ञातव्य है कि अठारह प्रकार के पाप स्थानों में दसवाँ पापस्थान 'राग' है। आगमों में राग को भी पाप कहा है। रात्रिभोजन में राग की अधिकता होती है। रात्रिभोजन करने वालों को दिन की अपेक्षा रात के भोजन में अधिक आनंद आता है। वे मजा ले लेकर चावपूर्वक रात का भोजन करते हैं। वे कहते हैं- 'रात को खाओ-पीओ, दिन को आराम करो'। इस प्रकार राग-भाव पूर्वक रात्रिभोजन करने से पापकर्मों का निकाचित बंध होता है, जिसका पूरी तरह भुगतान किये बिना कभी छुटकारा नहीं होता। रात्रिभोजन से अगले जन्म में ही नहीं, इस जन्म में भी दुर्गति होती है। रात्रिभोजों में कई बार जहरीले जीव-जन्तु छिपकली आदि गिर जाने से सारा भोजन जहरीला बन जाता है। उस जहरीले भोजन का सेवन करने वाले सब अस्वस्थ हो जाते हैं और फिर उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। ऐसी घटनाएँ आये दिन अखबारों में छपती रहती हैं। जिन्हें अपना जीवन प्रिय हो उन्हें अपने एवं अपने परिवार के लिए ही सही रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए। मेवाड़ के एक गाँव में एक राजकर्मचारी के यहाँ महाराज (रसोइया) रोटी बना रहे थे। एक दिन रात्रि के समय भोजन में भिंडी का शाक बनाया गया। भिंडियाँ मसाला भर के समूची ही Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 32 ) तवे पर बनाई गई थीं। अचानक छत से एक छिपकली भी तवे पर आ गिरी। तवा लाल सुर्ख धधक रहा था और उस पर पड़ते ही छिपकली के प्राण पखेरू उड़ गए। क्षण भर में वह भी भिंडियों में मिल गई। राजकर्मचारी भोजन करने बैठे तो पहली ही बार भिंडियों के साथ वह भुनी हुई छिपकली भी थाली में आ गई। पहले ही कौर में उसकी पूंछ हाथ में आई । राजकर्मचारी आपे से बाहर हो गए। दूसरे कौर में छिपकली के पैरों पर हाथ पड़ा। तब तो खाने वाले महाशय बड़े ही तमतमाये। दीपक मँगवाकर प्रकाश में देखा तो छिपकली नजर आई। उस दिन उनकी आँखे खुल गईं और रात्रिभोजन का सदा के लिए त्याग कर दिया। सर्वसामान्य दृष्टि से दोष यदि हम सामान्य दृष्टि से विचार करते हैं तो रात्रिभोजन त्याग से शरीररक्षा और आत्मरक्षा दोनों ही होती है, रात्रिभोजन तनमन-धन सभी का नाश करता है। काल की दृष्टि से भी रात्रि का अधिकतम काल पापाचरण का माना गया है क्योंकि उस समय भोगी भोग के रस में लिप्त होते हैं। चोर चोरी करने में व्यस्त रहते हैं। रात को फिरने वाले उल्लू वगैरह पक्षी खुद के भक्ष्य की खोज में होते हैं । शरीर शास्त्रियों का कहना है कि सूर्य अस्त होने पर अपने शरीर में रही हुई ऊर्जा शक्ति कम हो जाती है। ऊर्जा शक्ति की हानि होने से रात्रि में किया हुआ भोजन किस तरह शक्तिदायक बन सकता है। परिणामतः ऊर्जा शक्ति कम होने से रात में लिया हुआ आहार शरीर को नुकसानकारी ही सिद्ध होता है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (33) यह प्रत्यक्षीभूत विषय है कि कोई उत्तम जौहरी जब कीमती हीरा खरीदता है तब वह हीरे को दिन के प्राकृतिक प्रकाश में ही कई प्रकार से देखकर खरीदता है। रात्रि के प्रकाश में नहीं। यह भी अनुभव करते हैं कि लाख पॉवरवाला बल्ब रहने पर भी कमल सूर्यास्त के बाद विकसित नहीं होता। उसे विकसित करने की ताकत तो सिर्फ सूर्य में ही है। उसी प्रकार शरीर-मन एवं आत्मा को स्वस्थ रखने की ताकत दिवसकालीन भोजन में ही है। ___यह पढ़ने को मिला है कि मांसाहारी पशु दिन को आराम करते हैं और रात को आहार की खोज में घूमते हैं। यदि कोई ऐसा कहे कि आजकल शाकाहारी पशु भी रात को खाते हैं, यह कहना ठीक नहीं है। कदाचित् देश कालगत दुष्प्रभाव से यह संभव हो सकता है सामान्यतया असंभव है। सामान्यतः जंगल में रहने वाले गाय, हिरण आदि पशु भी रात्रिभोजन करते हों ऐसा ज्ञात नहीं है और न ही देखा-सुना गया है। यदि कोई ऐसा कहे, रात में नहीं खाने से दूसरे दिन तक १४१५ घंटे का अंतर हो जाता है। जबकि सुबह और शाम के भोजन के बीच बहुत अंतर नहीं है। इस कारण रात्रिभोजन का त्याग वैज्ञानिक ढंग वाला नहीं है तो वह सत्य बात से अज्ञात है। सुबह में खाने के बाद जितना परिश्रम किया जाता है उससे बहुत कम परिश्रम रात में खाने के बाद किया जाता है। अतः रात्रिभोजन करना उचित नहीं है। रात्रिभोजन करना महापाप है। जैन रामायण की एक छोटी सी घटना इस बात का समर्थन करती है वह घटना इस प्रकार है- राम-लक्ष्मण ने वनवास स्वीकार करके वनगमन किया। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (34) महासती सीता भी उनके साथ थी। दक्षिण में भ्रमण करते-करते कुबेरनगरी में पहुँचे। वहाँ के राजा ने उन सबका आदर-सत्कार किया और अपनी पुत्री वनमाला का विवाह लक्ष्मण के साथ किया। फिर लक्ष्मण राम के साथ आगे बढ़े और वनमाला को पिता के घर ही रहना पड़ा। तब वनमाला ने लक्ष्मण को वापस लौटने की कसम खाने के लिये कहा। तब लक्ष्मण ने प्रण लिया- 'यदि रामचन्दजी को उनके इष्ट स्थान पर छोड़कर वापस न लौटूं तो मुझे पाँच पापों के सेवन का पाप लगे और ऐसे पापी की जो गति होती है, वह गति मेरी हो' पर वनमाला को इससे संतोष नहीं हुआ। उसने कहा - कि अगर “रात्रिभोजन का पाप लगे" ऐसा कहे तो मैं जाने की आज्ञा देती हूँ अन्यथा नहीं। तब उन्हें आगे बढ़ने की इजाजत दी। यहाँ पर समझने की बात यह है कि प्राणातिपात आदि पापों से जो दुर्गति होती है उससे भी रात्रिभोजन के पाप से बहुत भयंकर दुर्गति होती है। रात्रि के दोषों को जानकर जो भव्यात्मा सूर्योदय और सूर्यास्त की दो-दो घड़ी छोड़कर भोजन करते हैं (सूर्योदय के बाद दो घड़ी और सूर्यास्त के पहले दो घड़ी छोड़कर) वे पुण्यशाली हैं।२८ __रात में अक्सर उल्लू, चमगादड़, शेर, चीता, बिल्ली, भेड़िया आदि हिंसक प्राणी आहार करते हैं। रात का भोजन मानवीय भोजन नहीं कहा जा सकता है, क्या हम पक्षियों के स्तर से भी नीचे गिर गये हैं ? हमारे पूर्वाचार्यों ने सदैव रात्रिभोजन का प्रवचनों, रचनाओं आदि के माध्यम से पूर्ण विरोध किया है। ऐसा भी सुनने को मिलता है कि रात्रिभोजी माँसाहारी तुल्य पापी है। पूर्वाचार्यों ने कहा भी है - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (35) चिड़ी कमेड़ी कागला, रात चुगन नहिं जाय। नरदेहधारी मानवा, रात पड्या क्यूँ खाय।। रात में फिरे और खावे, मनुज वे निशिचर कहलाते। निशाचर रावण के भाई, नहीं रघुवर के अनुयायी।। आज हमें जैनत्व की मूल व प्रथम पहचान को वापस दृढ़ता से पालन करना व कराना अत्यन्त आवश्यक है। कई भाई-बहन तर्क देते हैं कि कार्य की व्यस्तता व महानगरों में दूरियों के कारण रात्रिभोजन त्याग नहीं निभ सकता, लेकिन अगर गंभीरता से मानसिकता बनायें तो जैसे विदेशी भाई अपनी पानी की बोतल साथ रखते हैं, हम यात्रा में अपना भोजन साथ रखते हैं ठीक इसी प्रकार दूर जाने वाले व कामकाजी भाई-बहिनों को शाम का भोजन अपने साथ ले जाना चाहिये। आजकल तो ऐसे साधन उपलब्ध हैं जिससे लम्बे समय तक भोजन गर्म व ताजा बना रह सकता है। कई भाई-बहन रात्रिभोजन का त्याग तो करते हैं, लेकिन कुछ दिन छूट रखते हैं तथा उन दिनों का उपयोग सामूहिक भोज में करते हैं, यह बिल्कुल अनुचित है। इससे हमारी नकलकर दूसरे भी रात के भोजन के लिये प्रेरित होते हैं। हमें चाहिये कि सामूहिक भोज में तो किसी भी मूल्य पर रात को भोजन नहीं करें, ताकि दूसरों पर गलत छाप नहीं पड़े व जैनत्व बदनाम न हो। __रात्रिभोजन से जाने-अनजाने शरीर में धीरे-धीरे रोग प्रवेश करने लगते हैं एवं रोगों से जूझने की प्रतिरोधात्मक शक्ति का भी धीरे-धीरे ह्रास होता है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) रात्रिभोजन त्याग करने से होने वाले लाभ जैन धर्म में रात्रिभोजन को महापाप बताया गया है और यह भी कहा गया है कि केवलज्ञानी भी रात्रिभोजन के संपूर्ण दोषों का वर्णन नहीं कर सकते हैं। रात्रिभोजन के त्याग से जिस तरह आत्मा की सुरक्षा है उसी तरह शरीर की सुरक्षा भी होती है। रात्रिभोजन न करने से तन-मन और आत्मा तीनों स्वस्थ रहते हैं १. रात्रिभोजन त्याग से आहार संज्ञा पर विजय प्राप्त होती है। २. लोभकषाय पर विजय प्राप्त होती है। ३. मानसिक निर्मलता का विकास होता है। ४. भावनाएँ पवित्र बनती हैं। ५. विषय-वासना, विकार के भाव दूर होते हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अतीत काल से लेकर वर्तमान युग के वैज्ञानिक भी रात्रि - भोजन को उचित नहीं मानते। आधुनिक सभ्यता में पले-बढ़े लोग 'डिनर' के नाम पर भले ही रात्रिभोजन को महत्त्व देते हों, वह है अनुचित ही । जैन, बौद्ध और वैदिक धार्मिक परम्परा ही नहीं, चरक और सुश्रुत जैसे आयुर्वेदिक ग्रन्थकार भी रात्रिभोजन से होने वाली हानियों का चित्रण करते हैं। पर सारतत्त्व यही है कि रात्रिभोजन से जीवहिंसा, कर्म-बंधन, व्रत-भंग, दानान्तराय, स्वास्थ्यहानि, आर्थिकहानि, नैतिक एवं आध्यात्मिक पतन, मानसिक चंचलता, सामाजिक विकृति आदि अनेक हानियाँ हैं, लाभ लेशमात्र भी नहीं है। अतः रात्रिभोजन अपरिहार्यतः वर्जनीय है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 37 ) रात्रिभोजन त्याग सम्बन्धी दृष्टांत प्राचीन काल से आज तक रात्रिभोजन के दुष्परिणाम पर अनेक घटनाएँ बनी हैं। कुछ उदाहरण यहाँ दिए जा रहे हैं, शायद आप भी ऐसे कई उदाहरण जानते होंगे ! यह पढ़कर और आप अपने अनुभव से दूसरों को समझाकर मानव मात्र को रात्रिभोजन त्याग की प्रेरणा दें। (१) यह धरती 'बहुरत्ना वसुंधरा' के नाम से पहचानी जाती है, इसमें कोई शक नहीं है। वर्तमान युग जो कि आधुनिकता की चकाचौंध में अपने अस्तित्व को भूलता जा रहा है, उसमें भी कुछ ऐसे रत्न हैं जो कि अपने आत्मोद्धार की ओर प्रगतिशील है । जयपुर के एक श्रावक पूज्या गुरुवर्य्याश्री को वंदन करने आए। दोपहर के समय पूज्याश्री के पास खड़े संघ के बहुत से भाइयों ने उन्हें भोजन के लिये घर पर पधारने की विनती की परन्तु उन्होंने किसी को हाँ नहीं कहा। आखिर में पूज्याश्री ने पूछा कि 'आप क्यों मना कर रहे हो।' उन्होंने जवाब दिया कि मुझे रात्रिभोजन का त्याग है और जिसके घर में रात्रिभोजन होता हो उसके घर में दिन में भी खाना खाने का त्याग है। समय बदल गया है। इसलिए हर एक सेठ के घर में रात्रिभोजन तो होता ही है। मैं किस तरह खा सकता हूँ? आप मुझे आयंबिल का प्रत्याख्यान दे दीजिए; मैं यहीं आयंबिल कर लूंगा।' सचमुच श्रावक जी ने उस दिन आयंबिल किया और अपने संकल्प के प्रति दृढ़ रहें। पाठकों! आप इतने कठोर नहीं, तो कम से कम रात्रिभोजन का त्याग करने की प्रतिज्ञा तो करो। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) (२) भारतीय नारी संस्कारों की जननी है। बच्चों को बचपन में जैसे संस्कार दिए जाते हैं वे उन संस्कारों का जीवनभर अनुसरण करते हैं। एक बार एक श्रावक अपने दस और तेरह वर्ष के दो पुत्रों को लेकर उपाश्रय में आये। उनको पू. बड़े महाराज साहेब के दर्शन करने थे। बड़े महाराज श्री आराम कर रहे थे, इसलिए वे मेरे पास बैठे। मैंने पूछा 'आपको क्या काम हैं?' उन्होंने कहा कि ये दोनों बालक एक वर्ष के लिए प्रतिदिन गरम पानी, परमात्मपूजा और रात्रिभोजन त्याग की प्रतिज्ञा पू. बड़े महाराज साहेब के मुखारविंद से लेना चाहते हैं। “मैंने कहा कि 'एक वर्ष के लिये क्यों जीवनभर के लिये दिला दीजिए।' उन श्रावक जी ने कहा कि, जन्म होने के बाद आज तक कभी रात्रिभोजन किया नहीं और भविष्य में भी करने की भावना नहीं है। परन्तु प्रतिज्ञा हर वर्ष दिलाते हैं। जन्म के ४० दिन के बाद आज तक पूजा के बिना एक दिन भी गया नहीं। छोटे थे तब रोज नहला के पूजा के कपड़े पहनाकर मंदिर ले जाते थे। एक तिलक करवाकर तुरन्त घर भेज देते थे। जिससे कपड़े खराब होने और आशातना होने का प्रसंग न आए। जन्म के बाद कभी भी कच्चा पानी पीया नहीं।' गाजे-गाजे छे, महावीर नुं शासन गाजे छ।' आज के समय में भी ऐसे उजले दूध जैसे राजहंस जैसे बालक जैन संघ में मौजूद हैं। अपना संघ ऐसे राजहंसों से और जन्म देने वाले मान सरोवर जैसे माता-पिता से उज्ज्वल एवं पवित्र है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (39) आजकल की युवा पीढ़ी भी माता-पिता को सही दिशा निर्देश दे सकती है। एक बार की बात है। एक बालक तपोवन (नवसारी) जैसी संस्था में भर्ती था। पू. गुरुदेवों के पावन सान्निध्य में उसमें संस्कार सींचा गया था। संस्था में था तब तक रात्रिभोजन का त्याग था, लेकिन घर जाने के बाद स्वयं की मरजी की बात थी। छुट्टियाँ हुईं। मम्मी पापा आकर मुंबई ले गए। रविवार का दिन था, शाम का समय था। सब चौपाटी पर घूमने गये थे। पुत्ररत्न की इच्छा जाने बिना ठेले वाले को इशारे से पावभाजी की तीन डिश का ऑर्डर दे दिया। थोड़े समय में एक साथ तीन डिश हाजिर हुई। लड़के ने मना किया। उसने कहा, 'गुरुदेव ने मना किया है। रात्रिभोजन, नरकगति का नेशनल हाइवे है। नहीं, पापा नहीं, मुझे नहीं खाना। माँ-बाप ने बेटे को पटाने के लाख उपाय किये, परन्तु बेटा टस से मस नहीं हुआ। बची हुई डिश का आधा-आधा भाग माता-पिता ने चटकारे लेकर खाये। बालक देखता रहा और माँबाप खाते रहे। रात हुई सभी अपने घर गये परन्तु माँ-बाप को नींद नहीं आई। उनका मन विचलित होता रहा। पत्नी ने पति से कहा, 'हम कितने स्वार्थी हैं, गुरुदेव की अमृतमय वाणी क्या हमने नहीं सुनी? रात्रिभोजन का पाप क्या हमने नहीं समझा? सब जानते हुए भी रोज रात को खाते हैं। आज हमने बच्चे को भूखा रखकर अपने गले में पावभाजी किस तरह उतारी? हमने बड़ी भूल की है, कुदरत हमें नहीं छोड़ेगी। अभी बच्चे को उठाएँ और उससे माफी मांगें। जीवनभर के लिए रात्रिभोजन का त्याग करें।' दोनों ने वैसा ही किया। लगता है कि अब बच्चे ही माता-पिता को सही मार्ग पर लाएँगे। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 40 ) रात्रिभोजन शास्त्रानुसार नरक गति का द्वार तो है ही साथ ही हमारे प्राणों का वध करने में भी मुख्य भूमिका निभाता है। कुछ लोग अहमदाबाद में नेहरू-ब्रीज के कॉर्नर पर रात के १२ बजे अदरक-नींबू युक्त निचोड़ा हुआ गन्ने का रस पी रहे थे। आधा गिलास पिया होगा, तभी बेहोश होकर एक-एक कर गिरने लगे। ठेले वाला मशीन को वही छोड़कर भाग गया। पुलिस आई। जाँच करने पर पता चला कि गन्ने के बीच छोटा सांप का बच्चा पिस गया था और उसका जहर रस पीने वालों को चढ़ गया। उन सबको हॉस्पीटल ले जाना पड़ा। दोस्तों! घर में बहुत सफाई और सावधानी रखने के बाद भी कभी भोजन में मक्खी, कीड़े तथा कमरों में मच्छर, कॉकरोच, चूहे आदि निकल आते हैं तो होटलों, रेस्टोरेन्ट और ठेलों पर ध्यान रखने वाला कौन है? भयंकर हिंसाचार से तथा इस तरह की परिस्थिति से बचने के लिए रात्रिभोजन परित्याग का नियम ग्रहण कर लेना चाहिए। मुंबई गोवालिया टेंक में केम्प्स कॉर्नर के पास एक विशाल फ्लैट में ४० लोगों का एक परिवार आज भी एक रसोड़े में खाना खाता है। सभी आनंद से रहते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि कुटुम्ब के सभी सदस्यों को रात्रिभोजन का त्याग हैं। कुटुम्ब में पलता ऐसा धर्म सभी को साथ रहने का बल प्रदान करता हैं। निश्चय ही ऐसे परिवारों के साथ धर्मबल भी है।३९ प्राचीन समय की बात है। एक शहर में तीन मित्र रहते थे। एक जैन धर्मी श्रावक, दूसरा मिथ्यात्वी और तीसरा भद्र प्रकृति Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 41 ) का था। एक दिन तीनों मित्र आचार्य भगवंत के दर्शन करने गये। वहाँ उपदेश सुनकर श्रावक और भद्रिक दोनों ने रात्रिभोजन के त्याग की प्रतिज्ञा की । श्रावक अपनी प्रतिज्ञा में शिथिल बना और भद्रिक प्रतिज्ञा में दृढ़ ही रहा। उसकी दृढ़ प्रतिज्ञा देखते ही सभी घरवालों ने रात्रिभोजन का त्याग किया। 'महाजनः येन गतः स पन्थाः ' श्रावक के शिथिल होने से सभी घर वाले भी शिथिल हो गए। भद्रिक - श्रावक को बहुत समझाता था, किन्तु वह नहीं समझता था । श्रावक और मिथ्यात्वी दोनों काल क्रम से मृत्यु पाकर नरक में गए और तिर्यंचादि गति में अनेक भव करके गरीब ब्राह्मण के घर श्रीपुंज और श्रीधर के नाम से जन्म प्राप्त किया ! भद्रिक का जीव सुंदर व्रत का पालन कर देवलोक में गया। अवधिज्ञान के उपयोग से अपने मित्रों की दुर्दशा देखी। मित्र के प्रति अपना कर्त्तव्य समझकर मनुष्य लोक में आया, उन्हें प्रतिबोधित कर रात्रिभोजन का त्याग करवाया। क्योंकि मित्र तो उसी को कहते हैं जो पापान्निवारयति योजयते हिताय, ह्यान् च गुह्यति गुणान् प्रकटी करोति । आपद्गतं च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदंति संतः ।। रात्रिभोजन का त्याग करने से श्रीपुंज और श्रीधर के मातापिता क्रोधित होकर उसे दिन में भोजन देने का त्याग किया। तीन दिन उपवास हो चुके । मित्र देव ने देखा, हमारे दोनों मित्र कष्ट में हैं अतः मुझे सहायक होना चाहिए, यह सोच कर उसी गाँव के राजा के उदर में शूल रोग उत्पन्न किया। रोग को दूर करने Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 42 ) के सभी उपाय किए गए, परन्तु शूल रोग बढ़ता गया और आकाशवाणी हुई कि तुम्हारे गाँव में रात्रिभोजन का त्यागी श्रीपुंज रहता है, उनके कर स्पर्श से शूल मिट जाएगा। सभी को आश्चर्य हुआ और गाँव में श्रीपुंज ब्राह्मण की तलाश की गई। श्रीपुंज ब्राह्मण मिलते ही उसे राजा के पास ले गये । श्रीपुंज ब्राह्मण ने क्षेत्र देवता से कहा- “यदि मैं रात्रिभोजन का त्याग करता हूँ तो मेरे करस्पर्श से राजा रोग से मुक्त हो !” यह कहते ही राजा का रोग दूर हो गया। सर्वत्र रात्रिभोजन के त्याग की महिमा फैल गई। श्रीपुंज ५०० गाँव के अधिपति बने और अंत में तीनों मित्रों का मिलाप देवलोक में हुआ। वहाँ से मनुष्य जन्म लिया और संयम लेकर केवलज्ञान प्राप्त किया। रात्रिभोजन के त्याग का उपदेश दिया और निर्वाण प्राप्त किया। ४० (६) मुंबई का एक नौजवान प्रतिदिन प्रवचन में जाता था। जन्माष्टमी के अवसर पर उसने गुरुजी से आकर कहा कि मैं पाँच दिन तक प्रवचनों में नहीं आऊँगा क्योंकि मैं जन्माष्टमी में जुआ खेलने कलकत्ता जा रहा हूँ। गुरुजी ने उसे रात्रिभोजन का नियम करवा दिया। वह मित्रों के साथ कलकत्ता चला गया। रात के समय जुआ खेलते उसे भूख लगी । सभी मित्रों ने खाना मंगवाया, परन्तु उस नौजवान ने कुछ नहीं खाया। दूसरे दिन वह वापस मुंबई आ गया और प्रवचन में गया। गुरुजी द्वारा पूछे जाने पर उसने कहा कि मेरे दोस्तों ने रात्रिभोजन न करने पर मुझे जुआ नहीं खेलने दिया; क्योंकि उन्होंने मेरे सामने शर्त रखी कि भोजन करोगे तभी खेल सकोगे अन्यथा नहीं? आपके द्वारा दिए गए नियम ने मुझे Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 ) दृढ़ रहने की शक्ति प्रदान की और मैं वहाँ से चला आया। रात्रिभोजन के त्याग से मेरे अंदर जो जुआ खेलने की बीमारी थी वह दूर हो गई। रात्रिभोजन के त्याग से व्यक्ति बहुत सारी बुराइयों से बच सकता है। सन्दर्भ सूची १. दशवैकालिक, अगस्त्यसिंहचूर्णि, पृ. ६० २. दशवैकालिकसूत्र, राइभत्ते, ३/२ ३. दशवैकालिकसूत्र, ४/१६ | ४. वयछक्कं कायछक्कं, अंकप्पो गिहिभायणं पलियंकनिसेज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं - दशर्वेकालिकनियुक्ति, २६८ ५. दशवैकालिकसूत्र, ८/२८ ६. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. १९/३१ ७. किं रातीभोयणं मूलगुणः उत्तरगुणः? उत्तरगुण एवायं। तहावि सव्वमूलगुणरक्खा हेतुत्ति मूलगुणसम्भूतं पढिज्जति ।। -अगस्त्यचूर्णि, पृ. ८६ ८. विशेषावश्यकभाष्य गा. १२४७ वृत्ति। ९. योगशास्त्र, ३/४८-४९ १०. वही, ३/६२, ६५-६६ ११. (क) उलूककाकमार्जार, गृद्ध संबरशुकराः । अहिवृश्चिक गोधाश्च, जायन्ते रात्रिभोजनात् ।। -योगशास्त्र, ३/६७ (ख) उमास्वामि श्रावकाचार, ३२९ (ग) श्रावकाचार सारोद्धार, ११८ उद्धृत-श्रावकाचार संग्रह, भा.३ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (44) १२. करोति विरतिं धन्यो, यः सदा निशि भोजनात् । सोऽद्धं पुरुषायुष्कस्य, स्यादवश्यमुपोषितः ।। योगशास्त्र, ३/६९ १३. रत्नसंचयप्रकरण, ४४७-४५१ १४. सागारधर्मामृत, ४/२४ १५. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५/२१ १६. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, गा. १३२-३३ १७. मूलाचार, गा. २९६-९७ १८. भगवतीआराधना, ६/११७९-११८० १९. दर्शनसार, पृ. ३८ २०. चारित्रसार, पृ. १३ २१. आचारसार, ५/७० २२. सर्वार्थसिद्धि, ७/१ टीका पृ. ३४३-४४ २३. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ७/१, टीका भा. २ पृ. ५३४ २४. तत्त्वार्थवार्तिक, ७/१ टी. पृ. ५-४५८ २५. तत्त्वार्थवृत्ति, ७/१ २६. चत्वारो नरकद्वारा, प्रथमं रात्रिभोजनम्। परस्त्रीगमनं चैव सन्धानानन्तकायिके ।। ___-रात्रिभोजन महापाप, पृ. २५ २७. मद्यमांसाशनं रात्रीभोजनं कंदभक्षणम । ये कुर्वन्ति वृथास्तेषां, तीर्थयात्रा जपस्तपः ।। -महाभारत (ऋषीश्वर भारत) २८. (क) देवैस्तु भुक्तं पूर्वाह्ने, मध्याह्ने ऋषिभिस्तथा । अपराह्ने तु पितृभि, सायाह्ने दैत्यदानवैः ।। संध्यायां यक्षरक्षोभि, सदा भुक्तं कुलोद्वह । सर्ववेलां व्यतिक्रम्य, रात्रौ भुक्तम भोजनम् ।। -यजुर्वेद आह्निक श्लोक २४-१९ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (45) (ख) श्रावकाचारसारोद्धार -३/१०६-७ २९. नक्तं न भोजयेद्यस्तु, चातुर्मास्ये विशेषतः । सर्वकामानवाप्नोति, इहलोके परत्र च ।। -योगवासिष्ठ पूर्वार्ध श्लोक १०८ ३०. स्कंदपुराण- स्कंध ७/११/२३५ ३१. (क) मृते स्वजनमात्रेऽपि, सूतकं जायते ध्रुवम् । अस्तंगते दिवानाथे, भोजनं क्रियते कथम् ।। -मार्कण्डेय पुराण (ख) श्रावकाचार सारोद्धार -३/१०९ ३२. एकं समयं भगवा कासीसु चारिकं चरति महता भिक्खुसंघेन सद्धिं। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि- “अहं खो, भिक्खवे, अंजत्रेव रत्तिभोजना भुंजामि। अंञत्र खो पनाह, भिक्खवे, रत्तिभोजना भुंजमानो अप्पाबाधतंच संजानामि अप्पातंकतंच लहट्ठानंच बलंच फासुविहारंच। एथ, तुम्हेपि, भिक्खवे, अंजत्रेव रत्तिभोजना-भुंजथ । अंञत्र खो पन, भिक्खवे, तुम्हेपि रत्तिभोजना, भुंजमाना अप्पाबाधतंच संजानिस्सथ लहुट्ठानंच बलंच फासुविहारंचा" ति। -मज्झिमनिकाय-कीटागिरि सुत्तं, २.२.१० ३३ (क) ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं वर्जयन्ति सुमेधसः । __ तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥ महाभारत, शांतिपर्व १६ (ख) श्रावकाचार सारोद्धार, ३/१०८ (ग) उमास्वामि श्रावकाचार, ३२५ ३४. जैन आचारः सिद्धांत और स्वरूप, पृ. ८७२-७३ ३५. हनाभिपद्मसंकोच चण्डरोचिरपायतः। अतो नक्तं न भोक्तव्यं सूक्ष्मजीवादनादपि ।। योगशास्त्र, ३/६० Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (46) ३६. (क) योगशास्त्र, ३/५०-५३ (ख) श्रावकाचार सारोद्धार, २/९८-१०२ (ग) उमास्वामि श्रावकाचार, ३२१-२४ ३७. श्रुयते ह्यन्यशपथाननादृत्यैव लक्ष्मणः । निशाभोजनशपथं कारितो वनमालया ।। -योगशास्त्र, ३/६८ ३८. अह्नो मुखेऽवसाने च, यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् । निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनम् ।। - योगशास्त्र, ३/६३ ३९. डाईनींग टेबल, पृ. ४६-४८ ४०. रात्रिभोजन महापाप, पृ. ४३-४५ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रन्थ सूची १. आचारसार : वीरनन्दि, माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई, वि.सं. १९७४ २. आरोग्य आपका : डॉ. चंचलमल चौरड़िया, कल्याणमल __ चंचलमल चौरड़िया ट्रस्ट, जोधपुर, २००४ ३. उत्तराध्ययनसूत्र : मधुकरमुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८४ ४. चारित्रसार : चामुण्डराय, सं. डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, मुनि सौरभ सागर ग्रन्थमाला अंबाला छावनी, तृ.सं. २००२ ५. जैन आचारः सिद्धांतः ले. देवेन्द्र मुनि शास्त्री, श्री तारक गुरु और स्वरूप ग्रंथालय, उदयपुर, १९८२ ६. डाईनींग टेबल : आ. हेमरत्नसूरि, अर्हद् धर्म प्रभावक ट्रस्ट अहमदाबाद, १९९६ ७. तत्त्वार्थ वृत्ति : आ. श्रुतसागरसूरि, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९४९ ८. तत्त्वार्थवार्तिक : विद्यानन्द, सं. पं. महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्र. सं. १९५३ ९. तत्त्वार्थराजवार्तिक : अकलंक, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५३ १०. दशवैकालिकसूत्र : मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८५ ११. दशवैकालिक : अगस्त्यसिंह स्थविर, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, (अगस्त्य. चूर्णि) वाराणसी, प्र.स. १९७३ १२. दशवकालिक नियुक्तिः आ. भद्रबाहु स्वामी, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भंडार, बम्बई, १९१८ १३. दर्शनसार : आ. देवसेन, सं. डॉ. कमलेश कुमार जैन, प्राच्य श्रमण भारती, मुजफ्फरनगर, २००७ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (48) १४. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय : आ. अमृतचंद, सेन्ट्रल जैन पब्लिक हाउस, लखनऊ, १९३३ १५. भगवती आराधना : आ. शिवार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, १९७८ १६. मज्झिम निकाय : विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी, १९९५ १७. महाभारत : वेदव्यास विरचित, गीता प्रेस गोरखपुर, वि.सं. २०५१ १८. मार्कण्डेयपुराण : गीता प्रेस गोरखपुर, २००० १९. मूलाचार : आ. वट्टकेर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, १९८४ २०. योगशास्त्र : हेमचंद्राचार्य, श्री मुक्तिचंद्र श्रमण आराधना ट्रस्ट पालीताणा, १९७७ २१. रत्नसंचय प्रकरण : हर्षनिधानसूरि, जैन धर्म प्रचारक सभा, भावनगर, वि.सं. १८३३ ।। २२. रत्नकरण्डक : आ. समन्तभद्र, संपा. पं. पन्नालाल जैन, वीर श्रावकाचार सेवा मंदिर ट्रस्ट, काशी, प्र. सं. १९७२ २३. रात्रिभोजन महापाप : आ. राजयशसूरि, लब्धि विक्रम संस्कृति केन्द्र, अहमदाबाद, १९९६ २४. विशेषावश्यकभाष्य : जिनभद्रगणिश्रमाश्रमण, भद्रंकर प्रकाशन, अहमदाबाद, वि. सं. १९८० २५. सर्वार्थसिद्धि : पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५५ २६. सागारधर्मामृत : पं. आशाधर, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी प्र.सं. १९७८ २७. स्कंदपुराण : पं. श्रीराम शर्मा, संस्कृति संस्थान बरेली, १९८६ २८. श्रावकाचार संग्रह : सं. पं. हीरालाल शास्त्री, श्री जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर, १९७७ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our Important Publications 1. Studies in Jaina Philosophy Dr. Nathamal Tatia 200.00 Jaina Temples of Western India Dr. Harihar Singh 300.00 3. Jaina Epistemology Dr.I.C. Shastri 150.00 Jaina Theory of Reality Dr.J.C. Sikdar 300.00 5. Jaina Perspective in Philosophy & Religion Dr. Ramji Singh 300.00 6. Aspects of Jainology (Complete Set: Vols. 1 to 7) 2500.00 7. An Introduction toJaina Sadhana Prof. Sagarmal Jain 40.00 8. Pearls of Jaina Wisdom Dulichand Jain 120.00 9. Scientific contents in Prakrit Canons Dr. N.L. Jain 400.00 10. The Heritage of the Last Arhat: Mahavira Dr. C. Krause 25.00 11. Multi-Dimensional Application of Anekantavada Ed. Prof. S.M. Jain & Dr.S.P.Pandey 500.00 12. The World of Non-living Dr.N.L.Jain 400.00 13. Jains Today in the World Pierre Paul AMIEL 500.00 14. Jaina Religion: its Historical Journey of Evolution Dr. Kamla Jain 100.00 15. जैन धर्म और तान्त्रिक साधना प्रो. सागरमल जैन 350.00 16. सागर जैन-विद्या भारती (पाँच खण्ड) प्रो. सागरमल जैन 500.00 17. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण प्रो. सागरमल जैन 60.00 18. अहिंसा की प्रासंगिकता डॉ.सागरमल जैन 100.00 19. अष्टकप्रकरण डॉ. अशोक कुमार सिंह 120.00 20. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन डॉ. अशोक कुमार सिंह 125.00 21. जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन डॉ. शिवप्रसाद 300.00 22. अचलगच्छ का इतिहास डॉ. शिवप्रसाद 250.00 23. तपागच्छ का इतिहास डॉ. शिवप्रसाद 500.00 24. सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय 100.00 25. जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन डॉ. सुधा जैन 300.00 26. जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन डॉ. विजय कुमार 200.00 27. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (सम्पूर्ण सेट सात खण्ड) 1400.00 28. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास (सम्पूर्ण सेट चार खण्ड) 760.00 29. जैन प्रतिमा विज्ञान डॉ. मारुति नन्दन तिवारी 300.00 30. वज्जालग्गां (हिन्दी अनुवाद सहित) पं. विश्वनाथ पाठक 160.00 31. प्राकृत हिन्दी कोश सम्पा.- डॉ. के.आर. चन्द्र 400.00 32. भारतीय जीवन मूल्य प्रो. सुरेन्द्र वर्मा 75.00 33. समाधिमरण डॉ. रज्जन कुमार 260.00 34. पञ्चाशक-प्रकरणम् (हिन्दी अनुवाद सहित) अनु. डॉ दीनानाथ शर्मा 250.00 35. जैन धर्म में अहिंसा डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा 300.00 36. बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा डॉ. धर्मचन्द्र जैन 350.00 37. महावीर की निर्वाणभूमि पावा : एक विमर्श भगवतीप्रसाद खेतान 150.00 38. स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. विजय कुमार 500.00 39. सर्वसिद्धान्तप्रवेशक सम्पा. प्रो. सागरमल जैन 30.00 40. जीवन का उत्कर्ष श्री चित्रभानु 200.00 Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. 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