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________________ आत्मीय स्वर आहार प्राणी की प्राथमिक आवश्यकता है। जैन श्रावकाचार में रात्रिभोजन त्याग को विशेष महत्त्व दिया गया है। अन्य परम्पराओं में भी रात्रिभोजन को महापाप बतलाया गया है। इस युग में अधिकांश रोगों का मूल कारण अशुद्ध एवं अनियमित आहार को कहा जा सकता है। पूज्या गुरुवर्य्या श्री सदैव कहती थीं- 'जिसे लाली बाई को वश रखना आ गया उसने जीवन में सब कुछ पा लिया। कहा भी गया है कि "भावे जैसा खाना नहीं और आवे वैसा बोलना नहीं" दोनों ही संकट के कारण बनते हैं। रात्रिभोजन हमारे बाह्य जगत् और आभ्यन्तर जगत् दोनों को प्रभावित करता है तथा वैचारिक दूषण भी लाता है। यह लोकपरलोक दोनों को बिगाड़ने का कार्य करता है, परन्तु हमारी वर्तमान जीवन प्रणाली में यह हमारी ऋद्धि-समृद्धि का प्रतीक बन गया है। शादी-पार्टी रिसेप्शन आदि में रात्रिभोजन आम बात हो गई है, किन्तु इन सामाजिक कुरीतियों को तोड़ना हमारे हाथ में है। पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने वाले अपनी प्राचीन सभ्यता को भूलते जा रहे हैं और इन सबके लिए हमारी व्यवस्था प्रणाली जिम्मेदार है। साध्वी स्थितप्रज्ञा श्रीजी, जिन्होंने "जैन मुनि की आहार चर्या ' पर पी-एच. डी. की है, रात्रिभोजन त्याग करवाने में विशेष रुचि रखती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002109
Book TitleRatribhojan Tyag Avashyak Kyo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSthitpragyashreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2009
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Literature, & Paryushan
File Size3 MB
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