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________________ (23) एवं स्वाभाविक नियम यही है कि वह रात में विश्राम करे, भजनभक्ति, ध्यान आदि में रहे और दिन में श्रम करे। __जैन परम्परा में रात्रिभोजन निषेध की जो मान्यता है, वह प्रदूषण मुक्ति की दृष्टि से उचित मान्यता है, वस्तुतः रात्रिभोजन का सेवन न करने से प्रदूषित आहार शरीर में नहीं पहुँचता और स्वास्थ्य की रक्षा होती है। सूर्य के प्रकाश में जो भोजन पकाया और खाया जाता है, वह जितना प्रदूषण मुक्त एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है, उतना रात्रि के अंधकार या कृत्रिम प्रकाश में पकाया गया भोजन नहीं होता है। जैन धर्म ने रात्रिभोजन निषेध के माध्यम से पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य दोनों के संरक्षण का प्रयत्न किया है। दिन में भोजन पकाना और खाना उसे प्रदूषण से मुक्त रखना है क्योंकि रात्रि में एवं कृत्रिम प्रकाश में भोजन में विषाक्त सूक्ष्म प्राणियों के गिरने की संभावना प्रबल होती है। पुनः देर रात में किये भोजन का परिपाक भी सम्यक् रूपेण नहीं होता है। दूसरा कारण यह है कि दिन का वातावरण कीटाणु रहित होने से विशुद्ध होता है। सूर्य-प्रकाश के कारण वातावरण में शुद्धता अधिक होती है। पेड़-पौधे दिन में श्वासोच्छ्वास की क्रिया द्वारा आक्सीजन (प्राणवायु) छोड़ते हैं। अतः आक्सीजन युक्त हवा अधिक शुद्ध होती है। रात के समय हवा में प्राणवायु (आक्सीजन) का परिमाण कम हो जाता है और कार्बन डाइ-आक्साइड आदि का परिमाण बढ़ जाता है इसलिये रात के समय वातावरण अशुद्ध होता है। अशुद्ध वातावरण में भोजन करने से स्वास्थ्य बिगड़ जाता है इसलिये रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिये और दिन के शुद्ध वातावरण में ही भोजन करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002109
Book TitleRatribhojan Tyag Avashyak Kyo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSthitpragyashreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2009
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Literature, & Paryushan
File Size3 MB
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