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(25) रात्रिभोजन का त्याग करना इसलिए भी अनिवार्य है कि इससे अनेक सूक्ष्म जीवों की हिंसा का पाप लगता है एवं अपने उदर में सुषुप्तावस्था में रहे तंत्र को काम करना पड़ता है। भोजन के बाद जो समय पानी पीने के लिये चाहिये; वह भी नहीं रह पाता है अत: पाचन क्रिया पूर्णतः नहीं हो पाती है। __अन्न के साथ जल की मात्रा पूरी नहीं होने से उदर की क्रियाशीलता भी मंद हो जाती है। इससे जीवन में रुग्णता की स्थिति भी बनती है। जबकि दिन में सूर्य की प्रचंड गर्मी एवं उसकी रश्मियाँ देहधारी के शरीर में उष्णता के साथ-साथ रक्त शुद्धिकरण में भी सहायक होती हैं। इसलिए तो कहा गया है कि दिन में बनाओ, दिन में खाओ'।
इस तरह शारीरिक स्वास्थ्य के लिये भी रात्रिभोजन का त्याग करना आवश्यक है। रात्रिभोजन करने से पेट की गड़बड़ी, आँख, कान, नाक, दिमाग, दाँत की गड़बड़ी, अजीर्ण इत्यादि रोगों की संभावनाएँ बढ़ती हैं।
एक बात और है कि हृदय कमल अधोमुखी है और नाभिकमल ऊर्ध्वमुखी है। ये दोनों सूर्यास्त के बाद संकुचित हो जाते हैं, इसलिए भी रात्रिभोजन नहीं करना चाहिये। भोजन और शरीर का पारस्परिक गहरा सम्बन्ध है। सुयोग्यकाल में किया गया भोजन स्वास्थ्य के लिये कल्याणकारी होता है। जैन-जैनेतर सभी दर्शनों ने भोजन के लिये दिन के समय को सर्वोत्तम एवं सुयोग्य माना है, क्योंकि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के बीच के काल में सूर्य की किरणों से जो तत्त्व फैलते हैं, वे पाचन क्रिया को सक्रिय बनाने में सहायक होते हैं, क्योंकि सूर्य की ऊर्जा से तेजस् केन्द्र
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